1 हे मनुष्यों, क्या तुम सचमुच धर्म की बात बोलते हो? और हे मनुष्यवंशियों क्या तुम सीधाई से न्याय करते हो?
2 नहीं, तुम मन ही मन में कुटिल काम करते हो; तुम देश भर में उपद्रव करते जाते हो॥
3 दुष्ट लोग जन्मते ही पराए हो जाते हैं, वे पेट से निकलते ही झूठ बोलते हुए भटक जाते हैं।
4 उन में सर्प का सा विष है; वे उस नाम के समान हैं, जो सुनना नहीं चाहता;
5 और सपेरा कैसी ही निपुणता से क्योंन मंत्र पढ़े, तौभी उसकी नहीं सुनता॥
6 हे परमेश्वर, उनके मुंह में से दांतों को तोड़ दे; हे यहोवा उन जवान सिंहों की दाढ़ों को उखाड़ डाल!
7 वे घुलकर बहते हुए पानी के समान हो जाएं; जब वे अपने तीर चढ़ाएं, तब तीर मानों दो टुकड़े हो जाएं।
8 वे घोंघे के समान हो जाएं जो घुलकर नाश हो जाता है, और स्त्री के गिरे हुए गर्भ के समान हो जिसने सूरज को देखा ही नहीं।
9 उससे पहिले कि तुम्हारी हांडियों में कांटों की आंच लगे, हरे व जले, दोनों को वह बवंडर से उड़ा ले जाएगा॥
10 धर्मी ऐसा पलटा देखकर आनन्दित होगा; वह अपने पांव दुष्ट के लोहू में धोएगा॥
11 तब मनुष्य कहने लगेंगे, निश्चय धर्मी के लिये फल है; निश्चय परमेश्वर है, जो पृथ्वी पर न्याय करता है॥