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— 6 —
जब तू किसी अधिकारी के साथ भोजन पर बैठे तो इसका ध्यान रख, कि कौन तेरे सामने है। यदि तू पेटू है तो खाने पर नियन्त्रण रख। उसके पकवानों की लालसा मत कर क्योंकि वह भोजन तो कपटपूर्ण होता है।
— 7 —
धनवान बनने का काम करके निज को मत थका। तू संयम दिखाने को, बुद्धि अपना ले। ये धन सम्पत्तियाँ देखते ही देखते लुप्त हो जायेंगी निश्चय ही अपने पंखों को फैलाकर वे गरूड़ के समान आकाश में उड़ जायेंगी।
— 8 —
ऐसे मनुष्य का जो सूम भोजन होता है तू मत कर; तू उसके पकवानों को मत ललचा। क्योंकि वह ऐसा मनुष्य है जो मन में हरदम उसके मूल्य का हिसाब लगाता रहता है; तुझसे तो वह कहता — “तुम खाओ और पियो” किन्तु वह मन से तेरे साथ नहीं है। जो कुछ थोड़ा बहुत तू उसका खा चुका है, तुझको तो वह भी उलटना पड़ेगा और वे तेरे कहे हुएआदर पूर्ण वचन व्यर्थ चले जायेंगे।
— 9 —
तू मूर्ख के साथ बातचीत मत कर, क्योंकि वह तेरे विवेकपूर्ण वचनों से घृणा ही करेगा।
— 10 —
10 पुरानी सम्पत्ति की सीमा जो चली आ रही हो, उसको कभी मत हड़प। ऐसी जमीन को जो किसी अनाथ की हो। 11 क्योंकि उनका संरक्षक सामर्थ्यवान है, तेरे विरुद्ध उनका मुकदमा वह लड़ेगा।
— 11 —
12 तू अपना मन सीख की बातों में लगा। तू ज्ञानपूर्ण वचनों पर कान दे।
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13 तू किसी बच्चे को अनुशासित करने से कभी मत रूक यदि तू कभी उसे छड़ी से दण्ड देगा तो वह इससे कभी नहीं मरेगा।
14 तू छड़ी से पीट उसे और उसका जीवन नरक से बचा ले।
— 13 —
15 हे मेरे पुत्र, यदि तेरा मन विवेकपूर्ण रहता है तो मेरा मन भी आनन्दपूर्ण रहेगा। 16 और तेरे होंठ जब जो उचित बोलते हैं, उससे मेरा अर्न्तमन खिल उठता है।
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17 तू अपने मन को पापपूर्ण व्यक्तियों से ईर्ष्या मत करने दे, किन्तु तू यहोवा से डरने का जितना प्रयत्न कर सके, कर।
18 एक आशा है, जो सदा बनी रहती है और वह आशा कभी नहीं मरती।
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19 मेरे पुत्र, सुन! और विवेकी बनजा और अपनी मन को नेकी की राह पर चला। 20 तू उनके साथ मत रह जो बहुत पियक्कड़ हैं, अथवा ऐसे, जो ठूंस—ठूंस माँस खाते हैं। 21 क्योंकि ये पियक्कड़ और ये पेटू दरिद्र हो जायेंगे, और यह उनकी खुमारी, उन्हें चिथड़े पहनायेगी।
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22 अपने पिता की सुन जिसने तुझे जीवन दिया है, अपनी माता का निरादर मत कर जब वह वृद्ध हो जाये। 23 वह वस्तु सत्य है, तू इसको किसी भी मोल पर खरीद ले। ऐसे ही विवेक, अनुशासन और समझ भी प्राप्त कर; तू इनको कभी भी किसी मोल पर मत बेच। 24 नेक जन का पिता महा आनन्दित रहता और जिसका पुत्र विवेक पूर्ण होता है वह उसमें ही हर्षित रहता है। 25 इसलिये तेरी माता और तेरे पिता को आनन्द प्राप्त करने दे और जिसने तुझ को जन्म दिया, उसको हर्ष मिलता ही रहे।
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26 मेरे पुत्र, मुझमें मन लगा और तेरी आँखें मुझ पर टिकी रहें। मुझे आदर्श मान। 27 क्योंकि एक वेश्या गहन गर्त होती है। और मन मौजी पत्नी एक संकरा कुँआ। 28 वह घात में रहती है जैसे कोई डाकू और वह लोगों में विश्वास हीनों की संख्या बढ़ाती है।
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29-30 कौन विपत्ति में है कौन दुःख में पड़ा है कौन झगड़े—टंटों में किसकी शिकायतें हैं कौन व्यर्थ चकना चूर किसकी आँखें लाल हैं वे जो निरन्तर दाखमधु पीते रहते हैं और जिसमें मिश्रित मधु की ललक होती है!
31 जब दाखमधु लाल हो, और प्यालें में झिलमिलाती हो और धीरे—धीरे डाली जा रही हो, उसको ललचायी आँखों से मत देखो। 32 सर्प के समान वह डसती, अन्त में जहर भर देती है जैसे नाग भर देता है।
33 तेरी आँखों में विचित्र दृष्य तैरने लगेगें, तेरा मन उल्टी—सीधी बातों में उलझेगा। 34 तू ऐसा हो जायेगा, जैसे उफनते सागर पर सो रहा हो और जैसे मस्तूल की शिखर लेटा हो। 35 तू कहेगा, “उन्होंने मुझे मारा पर मुझे तो लगा ही नहीं। उन्होंने मुझे पीटा, पर मुझ को पता ही नहीं। मुझ से आता नहीं मुझे उठा दो और मुझे पीने को और दो।”