यीशु मसीह कौन है?
प्रश्न: यीशु मसीह कौन है?
उत्तर: यीशु मसीह कौन है? "क्या परमेश्वर का अस्तित्व है?" इस प्रश्न के विपरीत बहुत कम लोगों ने यह प्रश्न किया है कि क्या यीशु मसीह का कोई अस्तित्व था । यह सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि यीशु सच में एक मनुष्य था जो लगभग २००० वर्ष पहले इज़रायल में धरती पर चला-फिरा था । वाद-विवाद तब शुरू होता है जब यीशु की पूर्ण पहचान के विषय पर विचार होता है । लगभग हर एक मुख्य धर्म यह शिक्षा देता है कि यीशु एक भविष्यवक्ता, या एक अच्छा शिक्षक, या एक धार्मिक पुरुष था । समस्या यह है, बाइबल हमें बताता है कि यीशु अनन्तता में एक भविष्यवक्ता, एक अच्छे शिक्षक, या एक धार्मिक पुरुष से अधिक था ।
सी एस लुईस अपनी पुस्तक मेयर क्रिसचैनिटि (केवल मसीही धर्म) में यह लिखते हैं, "मैं यहाँ पर किसी को भी उस मूर्खता पूर्ण बात को कहने से रोकने का प्रयास कर रहा हूँ जो कि लोग अकसर उसके (यीशु मसीह) के बारे में कहते हैं : "मैं यीशु को एक महान नैतिक शिक्षक के रूप में स्वीकार करने को तैयार हूँ, परन्तु मैं उसके परमेश्वर होने का दावे को स्वीकार नहीं करता ।" यह एक वो बात है जो हमें नहीं कहनी चाहिये । एक पुरुष जो केवल एक मनुष्य था तथा उस प्रकार की बातें कहता था जैसी यीशु ने कही एक महान नैतिक शिक्षक नहीं हो सकता । या तो वो एक पागल व्यक्ति हो सकता है-उस स्तर पर जैसे कोई व्यक्ति कहे कि वो एक पका हुआ अंडा है-या फिर वो नरक का शैतान हो सकता है । आपको अपना चुनाव करना चाहिये । या तो यह व्यक्ति, जो था, और है, परमेश्वर का पुत्र है, या फिर कोई पागल या कुछ और बहुत बुरा … आप मूर्खता के लिए उसे चुप करा सकते हैं, एक राक्षस के रूप में उसपर थूक सकते हैं तथा उसे मार सकते हैं; या आप उसके चरणों में गिरकर उसे प्रभु तथा परमेश्वर कह सकते हैं । परन्तु हमें किसी भी कृपालु मूर्खता के साथ यह निर्णय नहीं लेना चाहिये कि वह एक महान शिक्षक था । उसने यह विकल्प हमारे लिये खुला नहीं छोड़ा है । उसकी ऐसी कोई मंशा नहीं थी ।"
फिर, यीशु ने कौन होने का दावा किया? बाइबल क्या कहती है कि वह कौन था? सबसे पहले , यूहन्ना १०:३० में यीशु के शब्दों की ओर देखते हैं, "मैं और पिता एक हैं ।" पहली दृष्टि में, ये परमेश्वर होने का दावे के रूप में प्रतीत नहीं होता । कैसे भी, उसके कथन पर यहूदियों की प्रतिक्रिया को देखें, "यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि भले काम के लिए हम तुझे पतथरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण, और इसलिए कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बताता है" (यूहन्ना १०:३३) । यहूदियों ने यीशु के कथन को परमेश्वर होने का दावा समझा था । निम्नलिखित पदों में यीशु ने यहूदियों को सुधारने के लिए कभी भी यह नहीं कहा, "मैंने परमेश्वर होने का दावा नहीं किया था" । यह संकेत देता है कि यीशु यह घोषणा करते हुए कि "मैं और पिता एक है" (यूहन्ना १०:३०) सच में कह रहा था कि वो परमेश्वर है । यूहन्ना ८:५८ एक अन्य उदाहरण है । यीशु ने कहा, "मैं तुम से सच-सच कहता हूँ कि इससे पहले कि इब्राहिम उत्पन्न हुआ मैं हूँ !" फिर से, प्रतिक्रिया में यहूदियों ने पत्थर उठाकर यीशु को मारना चाहा (यूहन्ना ८:५९) । यीशु ने जो अपनी पहचान "मैं हूँ" करके दी वो पुराने नियम में परमेश्वर के नाम का प्रत्यक्ष प्रयोग था (निगर्मन ३:१४) । यहूदी फिर से यीशु को क्यों पत्थरवाह करना चाहते थे अगर उसने कुछ ऐसा नहीं कहा था जिसे वो परमेश्वर की निन्दा करना समझ रहे थे, अर्थात, परमेश्वर होने का दावा?
यूहन्ना १:१ कहता है "वचन परमेश्वर था ।" यूहन्ना १:१४ कहता है "वचन देहधारी हुआ ।" यह स्पष्टता से संकेत करता है कि यीशु ही देह रूप में परमेश्वर है थोम, जो कि शिष्य था, यीशु के संबंध में कहता है, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर" (यूहन्ना २०:२८) । यीशु ने उसे नहीं सुधारा । प्रेरित पौलुस उसका इस रूप में वर्णन करता है " ... अपने महान परमेश्वर और उद्धारकर्ता यीशु मसीह" (तीतुस २:१३) । प्रेरित पतरस भी ऐसा ही कहता है, " ... हमारे परमेश्वर और उद्धारकर्ता यीशु मसीह" (२पतरस १:१) । पिता परमेश्वर भी यीशु की पूर्ण पहचान का साक्षी है, "परन्तु पुत्र से कहता है, कि हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन युगानुयुग रहेगा, तेरे राज्य का राजदण्ड है ।"
इसलिए, जैसा कि सी एस लुईस ने सिद्ध किया, कि यीशु को एक अच्छे शिक्षक के रूप में मानना कोई विकल्प नहीं है । यीशु ने स्पष्ट रूप से तथा अकाट्य रूप से परमेश्वर होने का दावा किया । अगर वो परमेश्वर नहीं है, तो फिर वो झूठा है, तथा इसलिए एक पैगंबर; अच्छा शिक्षक, या धार्मिक पुरुष नहीं है । निरंतर यीशु के शब्दों का व्याख्यान करने के प्रयासों में, आधुनिक विद्वान यह दावा करते हैं कि "वास्तविक ऐतिहासिक यीशु" ने वो कई बातें नहीं कहीं जो कि बाइबल उसे प्रदान करती है । परमेश्वर के वचन के साथ हम विवाद करने वाले कोन होते हैं कि यीशु ने यह कहा या नहीं कहा? एक विद्वान में, जो कि यीशु के दो हज़ार साल से अलग है, इतना अर्न्तज्ञान कैसे है सकता है कि यीशु ने यह कहा या नहीं कहा जितना कि उनमें जो उसके साथ रहे, उसकी सेवा करी तथा स्वयं यीशु से शिक्षा पाई (यूहन्ना १४:२६)?
यीशु की वास्तविक पहचान के ऊपर प्रश्न इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इस बात से क्यों फर्क पड़ता है कि यीशु परमेश्वर है या नहीं? सबसे महत्वपूर्ण कारण कि यीशु को परमेश्वर होना था वो यह है कि अगर यीशु परमेश्वर नहीं है, तो उसकी मृत्यु पूरे संसार के पापों के जुर्माने की कीमत अदा करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती थी (१यूहन्ना २:२) । केवल परमेश्वर ही ऐसा असीम जुर्माना भर सकता है (रोमियो ५:८; २कुरिन्थियों ५:२१) । यीशु को परमेश्वर होना था जिससे वो हमारा उधार चुका सकता । यीशु को मनुष्य होना था जिससे वो मर सके । केवल यीशु मसीह में विश्वास करके ही उद्धार पाया जा सकता है ! यीशु की प्रभुता ही है कि वो ही उद्धार का एकमात्र मार्ग है । यीशु की प्रभुता ही है कि उसने यह दावा नहीं किया (द्घोषणा की), "मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूँ । बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता" (यूहन्ना १४:६)
यीशु मसीह कौन है?
क्या यीशु परमेश्वर है? क्या यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया है?
प्रश्न: क्या यीशु परमेश्वर है? क्या यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया है?
उत्तर: बाइबल में यीशु के बारे में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि उसने यथार्थ रूप से ये शब्द कहें, "मैं परमेश्वर हूँ ।" हाँलाकि इसका मतलब यह नहीं कि उसने यह ऐलान नहीं करा कि वो परमेश्वर है । उदाहरण के रूप में यूहन्ना १०:३० में यीशु के शब्दों को लें, "मैं और पिता एक है ।" पहली दृष्टि में, यह परमेश्वर होने के दावे के रूप में प्रतीत नहीं होता । कैसे भी, उसके कथन पर यहूदियों की प्रतिक्रिया को देखें, "यहूदियों ने उसको उत्तर दिया , कि भले काम के लिए हम तुझे पत्थर से नहीं मारते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण, और इसलिए कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बताता है" (यूहन्ना १०:३३) ।
यहूदियों ने यीशु के कथन को परमेश्वर होने का दावा समझा था । निम्नलिखित पदों में यीशु ने यहूदियों को सुधारने के लिए कभी भी यह नहीं कहा, "मैंने परमेश्वर होने का दावा नहीं किया था ।" यह संकेत देता है कि यीशु यह घोषणा करते हुए कि "मैं और पिता एक हैं" (यूहन्ना १०:३०) सच मे ही कह रहा था कि वो परमेश्वर है । यूहन्ना ८:५८ एक अन्य उदाहरण है । यीशु ने कहा, "मैं तुम से सच-सच कहता हूँ; कि पहले इसके कि इब्राहिम उत्पन्न हुआ मैं हूँ ! फिर से, प्रतिक्रिया में यहूदियों ने पत्थर उठाकर यीशु को मारना चाहा (यूहन्ना ८:५९) । यहूदी यीशु को क्यूँ पत्थर मारना चाहते अगर उसने कुछ ऐसा नहीं कहा था जिसे वो परमेश्वर कि निन्दा करना समझ रहे थे, अर्थात, परमेश्वर होने का दावा?
यूहन्ना १:१ कहता है "वचन परमेश्वर था ।" यूहन्ना १:१४ कहता है, "वचन देहधारी हुआ ।" यह स्पष्टता से संकेत करता है कि यीशु ही देह रूप में परमेश्वर है । प्रेरितों के काम २०:२८ हमें बताते हैं, " ... परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली करो, जिसे उस ने अपने लहू से मोल लिया है ।" कलीसिया को किसने अपने लहू से मोल लिया था? यीशु मसीह । प्रेरितों के काम २०:२८ कहता है कि परमेश्वर ने कलीसिया को अपने लहू से मोल लिया । इसलिए यीशु परमेश्वर है ।
थोमा, जो कि चेला था, यीशु के संबंध में कहता है, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर" (यूहन्ना २०:२८) । यीशु ने उसे नहीं सुधारा । तीतुस २:१३ हमें हमारे परमेश्वर तथा उद्धारकर्ता-यीशु मसीह के आने की प्रतीक्षा करने के लिए प्रोत्साहित करता है (२पतरस १:१ भी देखें) । इब्रानियों १:८ में पिता यीशु के बारे में कहता है, "परन्तु पुत्र से कहता है, कि हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन युगानुयुग रहेगा, तेरे राज्य का राजदण्ड न्याय का राजदण्ड है ।"
प्रकाशित वाक्य में, एक र्स्वगदूत प्रेरित युहन्ना को निर्देश देता है कि वह केवल परमेश्वर ही को दण्डवत करे (प्रकाशितवाक्य १९:१०) । बाइबल में कई बार यीशु को दण्डवत किया गया है (मत्ती २:११;१ ४:३३; २८:९, १७; लूका २४:५२; यूहन्ना ९:३८) । वो लोगों को उसे दण्डवत करने से कभी नहीं डांटता । अगर यीशु परमेश्वर नहीं था, तो उसे लोगों से कहना चाहिये था कि उसे दण्डवत ना करें, जैसा कि प्रकाशित वाक्य में स्वर्गदूत ने किया था । बाइबल के कई अन्य पद तथा अनुच्छेद है जो यीशु की प्रभुता सिद्ध करते हैं ।
सबसे महत्वपूर्ण कारण कि यीशु को परमेश्वर होना था वो यह है कि अगर वो परमेश्वर नहीं है, तो उसकी मृत्यु पूरे संसार के पापों के जुर्माने की कीमत अदा करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती थी (१यूहन्ना २:२) केवल परमेश्वर ही ऐसा असीम जुर्माना भर सकता है । केवल परमेश्वर ही संसार के पाप अपने ऊपर ले सकता है (२कुरिन्थियों ५:२१), मर सकता है, तथा पुर्नजीवित हो सकता है-पाप तथा मृत्यु पर अपनी विजय प्रमाणित करते हुए ।
क्या यीशु परमेश्वर है? क्या यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया है?
क्या क्राइस्ट की प्रभुता बाइबल है?
प्रश्न: क्या क्राइस्ट की प्रभुता बाइबल है?
उत्तर: यीशु के अपने बारे में विशेष दावों के साथ-साथ, उसके चेलों ने भी क्राइस्ट की प्रभुता की पहचान की । उन्होंने दावा किया कि यीशु के पास पापों को क्षमा करने का अधिकार था-वैसा जैसा कि केवल परमेश्वर ही कर सकता है, क्योंकि परमेश्वर ही है जो पाप से क्रोधित होता है (प्रेरितों के काम ५:३१; कुलुस्सियों ३:१३; भजन संहिता १३०:४; यिर्मयाह ३१:३४) । इसके करीबी संबंध में यह अंतिम दावा था, यीशु के लिए यह भी कहा जाता है कि "जो जीवतों और मृतकों के साथ न्याय करेगा" (२तिमुथियुस ४:१) । थोमा ने यीशु से कहा, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर !" (यूहन्ना २०:२८) । पौलुस यीशु के विषय में कहता है, "महान परमेश्वर और उद्धारकर्ता" (तीतुस २:१३), तथा दर्शाता है कि देहधारण के पूर्व पहले यीशु "परमेश्वर के रूप में था (फिलिप्पियों २:५-८) । इब्रानियों का लेखक यीशु के संबंध में मत व्यक्त करता है कि, "हे परमेश्वर तेरा सिहांसन युगानुयुग रहेगा" (इब्रानियों १:८) । यूहन्ना अभिव्यक्त करता है, "आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन (यीशु) परमेश्वर था (यूहन्ना १:१) । बाइबल के उदाहरण जो क्राइस्ट की प्रभुता बताता हैं, (देखें प्रकाशित वाक्य १:१७; २:८; २२:१३; १कुरिन्थियों १०:४; १पतरस २:६-८; भजन संहिता १८:२; ९५:१; १पतरस ५:४; इब्रानियों १३:२०), परन्तु इनमें से एक ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि क्राइस्ट अपने शिष्यों के द्वारा प्रभु समझा जाता था ।
यीशु को वो भी नाम दिये गए हैं जो केवल यहोवा (परमेश्वर का औपचारिक नाम) के पुराने नियम में दिये गए हैं । पुराने नियम का नाम "उद्धारकर्ता" (भजन संहिता १३०:७; होशे १३:१४) को नए नियम में यीशु के लिए प्रयोग किया गया है (तीतुस २:१३; प्रकाशित वाक्य ५:९) । यीशु को इम्मानुएल कहा गया है। ("परमेश्वर हमारे साथ" मत्ती 1 में) । जर्कय्याह १२:१० में, यह यहोवा है जो कहता है, "तब वे मुझे ताकेंगे, अर्थात जिसे उन्होंने बेधा है ।" परन्तु नया नियम यह यीशु के सूली पर चढ़ाये जाने पर लागू होता है । (यूहन्ना १९:३७; प्रकाशित वाक्य १:७) । अगर वो यहोवा है, जिसे बेधा गया और ताका गया, तथा यीशु भी था जिसे बेधा गया और खोजा गया, फिर यीशु यहोवा है । पोलुस यशायाह ४५-२२-२३ को यीशु पर लागू करके फिलिप्पियों २:१०-११ में भाषान्तर करता है । इससे आगे, यीशु का नाम यहोवा के साथ प्रार्थना में भी लिया जाता है "परमेश्वर पिता, और हमारे प्रभु यीशु क्राइस्ट की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे" (गलतियों १:३; इफीसियों १:२) । अगर क्राइस्ट में प्रभुता नहीं थी तो यह परमेश्वर की निन्दा करना होगा । यीशु का नाम यहोवा के साथ यीशु के द्वारा नामकरण संस्कार की आज्ञा में प्रकट होता है "पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से" (मत्ती २८:१९; २कुरिन्थियों १३:१४ भी देखें) प्रकाशित वाक्य में यूहन्ना कहता है कि सारी सृष्टि ने क्राइस्ट (मेम्ना) का धन्यवाद दिया-अतः यीशु सृष्टि का हिस्सा नहीं है (५:१३)
जो कार्य केवल परमेश्वर के द्वारा किए जा सकते हैं वो यीशु के के दायित्व में आता है । यीशु ने केवल मुर्दों को ही नहीं जिलाया (यूहन्ना ५:२१; ११:३८-४४), तथा पाप क्षमा किये (प्रेरितों के काम ५:३१, १३:३८), उसने ब्रह्याण्ड की सृष्टि की तथा उसे बनाए रखा (यूहन्ना १:२; कुलुस्सियों १:१६-१७) ! यह तथ्य उस समय और शक्तिशाली बन जाता है जब हम विचार करते हैं कि यहोवा ने कहा था कि सृष्टि को बनाते समय यहोवा अकेला था (यशायाह ४४:२४) इससे आगे, यीशु में वो विशेषताएं हैं जो केवल प्रभु में हो सकती है; अनंतता (यूहन्ना ८:५८), सर्वव्यापकता (मत्ती १८:२०; २८:२०), सर्वज्ञता (मत्ती १६:२१), सर्वकार्यक्षमता (यूहन्ना ११:३८-४४) ।
अब, परमेश्वर होने का दावा करना या किसी को मूर्ख बनाना कि वह विश्वास करे कि वो सच्चाई है, एक अलग बात है तथा ऐसा होने का प्रमाण देना, कुछ और । क्राइस्ट ने अपने प्रभु होने के दावे को प्रमाणित करने के लिए कई चमत्कार प्रस्तुत किये तथा यहाँ तक कि मुर्दों में से भी जी उठा । यीशु के कुछ चमत्कार यह है, पानी को दारवरस बनाना (यूहन्ना २:७), पानी पर चलना (मत्ती १४:२५), भौतिक वस्तुओं को गुणा करना (यूहन्ना ६:११), अन्धों को (यूहन्ना ९:७) लॅगड़ों को (मरकुस २:३), तथा बीमारों को चंगा करना (मत्ती ९:३५; मरकुस १:४०-४२), यहाँ तक कि मुर्दों को जिन्दा करना (यूहन्ना ११:४३-४४; लूका ७:११-१५; मरकुस ५:३५) । इनके अतिरिक्त, यीशु स्वयं मुर्दों में से जी उठा । विधर्मियों के पुराणों के कहे जाने वाले देवताओं के मरने और उठने से बिल्कुल अलग, पुनरुत्थान जैसी बात किसी भी अन्य धर्म ने गंभीरता से दावा नहीं किया-तथा किसी भी अन्य दावे के पास इतनी अधिक शास्त्रों से अलग की जानकारी नहीं है । डा० गैरी हैबरमास के अनुसार, कम से कम बारह ऐतिहासिक सत्य ऐसे हैं जो कि गैर-मसीही आलोचनात्मक विद्वान भी मानेंगेः
1. यीशु की मृत्यु सलीब पर चढ़ाये जाने द्वारा हुई ।
2. उसे गाड़ा गया ।
3. उसकी मृत्यु उसके शिष्यों के निराश होने तथा उम्मीद छोड़ने का कारण बनी ।
4. उसकी कब्र को कुछ दिनों बाद खाली पाया गया (या पाने का दावा किया गया) ।
5. शिष्यों ने यह विश्वास किया कि उन्हें जी उठे यीशु के प्रकट होने का अनुभव हुआ ।
6. उसके बाद उनके शिष्य शंका से निवृत होकर निडर विश्वासियों में परिवर्तित हुए ।
7. यह संदेश आरंभिक कलीसिया में प्रचार का केंद्रबिंदु बना ।
8. इस संदेश का येरूशलम में प्रचार किया गया ।
9. इस प्रचार के परिणामस्वरूप (चर्च) कलीसिया का जन्म हुआ तथा उसका विकास हुआ ।
10. पुनरुत्थान के दिन (रविवार) को सबत (शनिवार) के दिन से उपासना के लिए बदला गया ।
11. याकूब, जो कि एक संशयवादी था, परिवर्तित हुआ जब उसने भी विश्वास किया कि उसने पुर्नजीवित यीशु को देखा ।
12. पौलुस, मसीही धर्म का शत्रु, एक अनुभव के द्वारा परिवर्तित हुआ जिसपर उसने जी उठे परमेश्वर के होने का विश्वास किया ।
अगर कोई इस विशेष सूची के ऊपर आपत्ति भी करे, तो भी, पुनरुत्थान को प्रमाणित करने तथा सुसमाचार को स्थापित करने के लिये केवल थोड़ों की ही आवश्यकता है : यीशु की मृत्यों, गाड़े जाने, पुनरुत्थान तथा प्रकट होने (१कुरिन्थियों १५:१-५) । हाँलाकि ऊपर लिखी वास्तविकताओं के व्याख्या के लिए कुछ सिद्धान्त हो सकते हैं परन्तु केवल पुनरुत्थान उन सब की व्याख्या करता है तथा जबावदेह है । आलोचक यह मानते हैं कि चेलों ने यह दावा किया कि उन्होंने जी उठे यीशु को देखा । ना तो झूठ, ना ही भ्रांति इस तरह से लोगों को परिवर्तित कर सकते हैं जैसा कि पुनरुत्थान ने किया । प्रथम, कि उनको क्या लाभ होता? मसीही धर्म इतना लोकप्रिय नहीं था तथा निश्चित रूप से वो पैसा नहीं बना सकते थे । दूसरा, झूठे लोग अच्छे बलिदानी नहीं बन सकते । अपने विश्वास के लिये शिष्यों की स्वेच्छा से भयावह मृत्यों को स्वीकार करना, नरुत्थान से अधिक अच्छी व्याख्या नहीं हो सकती । हाँ, कई लोग उन असत्यों के लिये मरते हैं जिन्हें वे सत्य समझते हैं, परन्तु कोई भी उस वस्तु के लिए नहीं मरता जिसे वो जानता हो कि वो असत्य है ।
सारांश यह है कि यीशु ने दावा किया कि वो यहोवा है, वो प्रभु है । केवल "परमेश्वर" नहीं, परन्तु "सच्चा परमेश्वर", उसके चेले (यहूदी लोग जो कि मूर्तिपूजा से डरे हुए हो सकते थे) उस पर विश्वास करते थे तथा उसे ऐसे बुलाते थे । यीशु ने अपने प्रभु होने के दावे को चमत्कारों के द्वारा प्रमाणित किया जिसमें कि संसार को हिला देने वाला पुनरुत्थान भी शामिल था । कोई भी अन्य प्राकल्पना के इन तथ्यों को नहीं समझा सकता ।
क्या क्राइस्ट की प्रभुता बाइबल है?
क्या यथार्थ में यीशु का अस्तित्व था ? क्या यीशु मसीह का कोई ऐतिहासिक प्रमाण है ?
प्रश्न: क्या यथार्थ में यीशु का अस्तित्व था ? क्या यीशु मसीह का कोई ऐतिहासिक प्रमाण है ?
उत्तर: विशिष्ट रूप से, जब यह प्रश्न पूछा जाता है है तब जो जन यह पूछ रहा होता है प्रश्न को ‘‘बाईबल के बाहर से है’’ बताता है। हम इस विचार को स्वीकृति नहीं देते है कि बाईबल को यीशु के अस्तित्व के लिए प्रमाण का स्त्रोत नहीं माना जा सकता । नया नियम में यीशु मसीह के सैकडों उल्लेख हैं। यहाँ ऐसे भी है जो सुसमाचार की पुस्तकों के लेखन का काल-निर्धारन यीशु की मृत्यु के 100 से अधिक साल बाद दूसरी शताब्दी में करते हैं। यदि ऐसी बात भी होती (जिसका हम कड़ाई से विरोध करते हैं), प्राचीन प्रमाणों के सम्बन्धों में, जो लेखन घटना के घटित होने के 200 सालों के कम समय के हैं उन्हें बहुत विश्वनीय प्रमाण माना जाता है। आगे, बड़ी बहुमत में विद्वान (मसीह और गैर-मसीह) यह स्वीकार करेगे कि पौलुस की पत्रीयाँ (या उनमें से कुछ) वास्तव में यीशु मसीह की मृत्यु के 40 सालों से भी कम समय बाद पौलुस द्वारा पहली शताब्दी के मध्य में लिखी गई है। यह पहली शताब्दी में इजराइल में यीशु नाम के जन के अस्तित्व का असाधारण प्रबल प्रमाण है।
यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि 70 ईसवी में, रोमियों ने आक्रमण किया और यरूशलेम और अधिकतर इजराएल का विनाश किया, वहाँ रहनेवालों का संहार किया। समपूर्ण शहरों का वस्तुतः जलाकर ज़मीन से लगा दिया गया । फिर हम को आश्चर्य चकित होना नहीं चाहिए, यदि यीशु के अस्तित्व के अधिकतर प्रमाण नाश हो गए हो। बहुत से यीशु के प्रत्यक्ष गवाह भी मारे गए होंगे । इस तथ्य ने सम्भवत: जीवित प्रत्यक्ष गवाहों की गवाही की संख्या को सीमित कर दिया होगा।
यह देखते हुए कि यीशु की सेवकाई तुलनात्मक रूप से अधिकतर रोम साम्राज्य के महत्वहीन क्षेत्र के छोटे से कोने में सीमित थी, तौभी यीशु के बारे में चकित करने वाली बड़ी मात्रा में सूचना गैर-मसीह ऐतिहासिक स्त्रोतो द्वारा प्राप्त की जा सकती है। यहाँ पर यीशु के कुछ अधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण दिए गए है:
पहली शताब्दी का रोमी टेसिटस, जिसे प्राचीन दुनिया के इतिहासकारों में से एक विशुद्ध इतिहासकार माना जाता है, ने अंधविश्वासी ‘‘मसीही’’ (क्रिसतूस से, जो कि लेटीन शब्द है यीशु के लिए) का उल्लेख किया, जिन्होने तिबरयस के राज्य में पोन्टीयस पीलातूस के हाथों कष्ट झेला । महाराजा हेडरीयन के मुख्य सचिव सुयटोनीयस, ने लिखा कि क्रिसतूस (क्रायीस्ट) नाम का एक जन जो की पहली शताब्दी में रहता था (अनालस 15:44)
फलवियस जोसफूस सबसे अधिक विख्यात यहूदी इतिहासकार है। अपने पुरावशेष में यह याकूब का उल्लेख करते हैं, ‘‘यूशु का भाई, जो मसीह कहलाता है ’’। एक विवादस्पद पद (18:3) है जो कहता है, ‘‘अब इस समय के दौरान यीशु, एक बुद्धिमान मनुष्य था, यदि यह न्यायोचित है उसे एक मनुष्य कहना। क्योकि वह ऐसा था जिसने अश्चर्यजनक अदभुत कार्य किये......................वह मसीहा था..............वह फिर से उन्हे तीसरे दिन जीवित दिखाई दिया, जैसा की पहले से भविष्य वक्ताओं ने बताया था और दस हजार अन्य अदभुत बातें उसके विषय में कही थी’’ । एक अन्य संस्करण ऐसे कहता है, ‘‘इस समय के दौरान एक बुद्धिमान जन था जिसका नाम यीशु था। उसका आचरण अच्छा था और वह धार्मिक जाना जाता था। और बहुत से लोग यूहदीयो और अन्य देशों में से उसके शिष्य बन गए। पीलातुस ने उसे अपराधी ठहराया ताकि क्रूस पर चढाया जाए और मारा जाए । परन्तु जो उसके शिष्य बने उन्होने उसकी शिष्यता को नहीं त्यागा । उन्होने सूचित किया कि वह क्रूस के तीन दिन बाद उन्हें दिखाई दिए और वे जी उठे हैं; इसके अनुसार सम्भवत: यह मसीह था, जिसके विषय में भविष्यवक्ताओं ने बताया था कि वह अद्भुत कार्य करेगा ।
जूलियस अफरीकनस इतिहासकार थालूस का उद्घृत करते हुए अंधकार की चर्चा करता है जो मसीह के क्रूस पर चढाये जाने के बाद हुआ था (एकसटेन्ट राईटीगस, 18) ।
पलीनी दा यंगर ने, लैटरस 10:96, में पहले मसीही की अराधना करने की परमपराओं को इस तथ्य के साथ तसदीककरता है कि मसीही लोग यीशु की आराधना ईश्वर के रूप करते थे और बहुत नैतिकता पसन्द करते थे, और वह प्रेम भोज और प्रभु भोज का उल्लेख भी सम्मिलित करता है।
बेबलोनीयन तालमूद (सनहेडरीन 439) यीशु को फसह के पूर्वसंध्या को क्रूस पर चढ़ाये जाने की और जादू-टोना करने और यूहदीयो को अपना धर्म छोडने के लिए उकसाने का दोषारोपण मसीह के के विरूद्ध किया गया इसकी पुष्टि करता है ।
लूसीयन आफ समोसोटा दूसरी शताब्दी के यूनानी लेखक थे जिसने स्वीकार किया कि मसीहीयों द्वारा यीशु की अराधना की जाती थी, उसने नयी शिक्षाओं का प्रस्तुत किया और उनके लिए क्रूस पर चढ़ाया गया । उसने कहा कि यीशु की शिक्षाओं में विश्वासियों का भाईचारा, बदलने का महत्व, और अन्य ईश्वरों को त्यागने का महत्वपूर्ण शिक्षा सम्मिलित है। मसीही यीशु के नियमों अनुसार जीते थे, विश्वास करते थे कि वह अमर है, और मृत्यु की उपेक्षा करने, स्वैच्छिक स्वयं-भक्ति, भौतिक वस्तुओं के त्याग के लिए जाने जाते थे।
मारा बार सरपीयन पुष्टि करता है कि यीशु को एक बुद्धिमान और धार्मिक जन समझा जाता था, बहुतों द्वारा इजराइल का राजा माना जाता था, यूहदीयों द्वारा मारे गए, और अपने अनुसरण करने वालों की शिक्षाओं में जीवित रहे ।
फिर हमारे पास सारे नोस्टीकस के लेखन है (दा गोस्पल आफ टुरथ, दा अपोक्रीफोन आफ जोन, दा गोसपल आफ थोमस, दा ट्रीटाईस आन रेजररकशन, आदि) यह सब यीशु का उल्लेख करते है।
वास्तव में, हम सुसमाचार को लगभग केवल पहले गैर-मसीही स्त्रोतो द्वारा बना सकते है: यीशु, मसीह कहलाता था (जोसेफुस) ‘‘जादू’’ किया इजराएल को नयी शिक्षाओं की ओर ले गया; और फसह के दिन यहूदीया में (टेसीटस) उनके लिए लटकाया गया (बेबीलोनीयन तालमूड) परन्तु परमेश्वर होने और फिर फिर से आने का दावा किया (एलीएजार), जिसे उसके अनुसरण करने वाले उस पर विश्वास करते थे उसकी परमेश्वर के रूप में अराधना करते थे (पलीनी दा यंगर)
यीशु मसीह के अस्तित्व के अत्याधिक प्रमाण है, दोनो गैर-मसीही और बाईबल के इतिहास में पाए जाते हैं । सम्भवत: यीशु का अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पहली शताब्दी में हजारों मसीही, उन बारहों प्रेरितों को मिला कर, यीशु मसीह के लिए अपने जीवन को निछावर करके शहीद होने के लिए तैयार थे। लोग जिस बात को सच मानते है उसके लिए मर सकते हैं, पर कोई भी जिसे वह जानते हैं कि झूठ है उसके लिए नहीं मरेगा ।
क्या यथार्थ में यीशु का अस्तित्व था ? क्या यीशु मसीह का कोई ऐतिहासिक प्रमाण है ?
इसका क्या अर्थ है कि यीशु परमेश्वर के पुत्र हैं ?
प्रश्न: इसका क्या अर्थ है कि यीशु परमेश्वर के पुत्र हैं ?
उत्तर: मानव पिता और पुत्र के अर्थ में यीशु परमेश्वर के पुत्र नहीं है। परमेश्वर ने पुत्र को जन्म देने हेतु विवाह नहीं किया । परमेश्वर ने मरियम के साथ बच्चे पैदा करने हेतु मिलन नहीं किया कि उसके साथ मिलकर पुत्र को उत्पन्न करे । यीशु इस अर्थ से परमेश्वर के पुत्र है कि परमेश्वर है जो मनुष्य के रूप में प्रगट हुए (यहुन्ना 1:1;14)। यीशु परमेश्वर के पुत्र इस तरह से हैं कि मरियम में उनका गर्भधारण पवित्र आत्मा के द्वारा हुआ । लूका 1:35 घोषित करता है कि स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया, ‘‘पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा और परमप्रधान की सामर्थ तुझ पर छाया करेगी; इसलिए वह पवित्र जो उत्पन्न होने वाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा’’।
यहूदी नेताओ के सामने अपनी सुनवाई के दौरान महायाजको ने यीशु से माँग की, मैं तुझे जीवते परमेश्वर की शपथ देता हूँ कि यदि तू परमेश्वर का पुत्र मसीह है, तो हम से कह दे’’ । यीशु ने उससे कहा, तूने आप ही कह दिया; वरन मैं तुम से यह भी कहता हूँ कि अब से तुम मनुष्य के पुत्र को सर्वशक्तिमान के दाहिनी ओर बैठे, और आकाश में बादलों पर आते देखोगे’’ (मत्ती 26:64)। यहूदी नेताओ ने यीशु पर निन्दा करने का आरोप लगाते हुए प्रत्युत्तर दिया (मत्ती 26:65-66)। इसके उपरांत यहूदियो ने पोन्टीयस पीलातुस के सामने उसको उत्तर दिया, ‘‘हमारी भी व्यवस्था है और उस व्यवस्था के अनुसार वह मारे जाने के योग्य है, क्योकि उसने अपने आप को परमेश्वर का पुत्र बताया’’ (यहुन्ना 19:7) । क्यो उसका परमेश्वर का पुत्र होने का दावा करना निन्दा मानी गई और मृत्यु की सजा के योग्य थी ? यहूदी अगुवे ठीक -ठीक समझते थे कि यीशु का ’’परमेश्वर का पुत्र’’ शब्दों से क्या अर्थ था। परमेश्वर का पुत्र होना परमेश्वर के तुल्ये होने जैसा था। परमेश्वर का पुत्र ‘‘परमेश्वर का’’ होना था। परमेश्वर के समान होने का दावा करना - यह यहूदी नेताओ के लिए निन्दा थी; इसलिए उन्होने लैव्यव्यवस्था 24:15 का अनुसरण करते हुए यीशू की मृत्यु की माँग की। इब्रानियो 1:3 स्पष्टता से यह व्यक्त करता है, ‘‘वह उसकी महिमा का प्रकाश और उसके तत्व की छाप है’’।
एक और उदाहरण यहुन्ना 17:12 में पाया जाता है जहाँ यहूदा को ‘‘विनाश का पुत्र’’ वर्णित किया गया । यहुन्ना 6:71 बताता है कि यूहदा शमोन का पुत्र था। यहुन्ना 17:12 का यहूदा को विनाश का पुत्र वर्णित करने से क्या अर्थ था ? विनाश शब्द का अर्थ ‘‘नाश, उजाड़, नाश, बेकार’’ होता है। यहूदा शाब्दिक रूप से ‘‘उजाड़, नाश, बेकार’’ का पुत्र नहीं था; परन्तु यह बातें यहूदा के जीवन की पहचान थी । यहूदा विनाश का प्रगटीकरण था। इसी रीति से यीशु परमेश्वर का पुत्र है। ‘‘परमेश्वर का पुत्र स्वयं भी परमेश्वर है। यीशु परमेश्वर का प्रकट रूप है (यहुन्ना 1:1;14).
इसका क्या अर्थ है कि यीशु परमेश्वर के पुत्र हैं ?
क्या यीशु मसीह का पुनरूत्थान सत्य है ?
प्रश्न: क्या यीशु मसीह का पुनरूत्थान सत्य है ?
उत्तर: धर्मशास्त्र निर्णयक प्रमाण पेश करता है कि यीशु मसीह का वास्तव में मरे हुआ में से पुनरूत्थान हुआ। मसीह का पुनरूत्थान मत्ती 28:1-20 मरकुस 16:1-20, लूका 24:1-53 और यूहा 20:1-21, 25 में अभिलिखित है। पुनर्जीवित मसीह प्रेरितो के काम (प्रेरितो के काम 1:1-11) में भी प्रगट होते है। इन अंशों में आप मसीह के पुनरूत्थान के कई ‘‘प्रमाण’’ प्राप्त कर सकते हैं ।
प्रथम शिष्यों में प्रभावशाली परिर्वतन। वह डरे और छिपे हुए पुरूषों के समूह से दृढ और सहासी गवाह बन कर सारे संसार में सुसमाचार सुनाने लग गये थे। अन्यथा इस प्रभावशाली परिर्वतन का वरण कैसे किया जा सकता है केवल कि पुनर्जीवित मसीह उन पर प्रगट हुए।
दूसरा प्रेरित पौलुस का जीवन। किसने उसे कलीसिया को सताने वाले से कलीसिया के प्रेरित में बदल दिया ? यह तब हुआ जब पुनर्जीवित मसीह दमीशक के मार्ग में उस पर प्रगट हुए (प्रेरितो के काम 9:1-6)।
तीसरा विश्वसत करने वाला सबूत खाली कबर है , यदि मसीह जी न उठे होते फिर उनकी लाश कहाँ है? शिष्याओं और अन्यों ने उसकी क़ब्र को देखा जहाँ उन्हें गाड़ा गया था। जब वे लौट कर आए तब उन्होने उनकी लाश को नही पाया। स्वर्गदूतों ने धोषणा की वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार मृतको में से जो उठा लिए गए हैं (मत्ती 28:5-7)।
चोथा, उनके पुनरूत्थान के और प्रमाण वह बहुत से लोग हैं जिन्हें वह दिखाई दिए ( मत्ती 28:5, 9, 16-17, मुरकुस 16:9, लूका 24:13-35, यूहा 20:19;24, 26-29, 21:1-14 प्रेरितों के काम 1:6-8; कुरिन्थियों 15:5-7)।
यीशु के पुनरूत्थान का अन्य सबूत यह है कि प्रेरितो़ ने यीशु के पुनरूत्थान बड़ा महत्त्व दिया। 1कुरिन्थियों 15 यीशु के पुनरूत्थान पर एक मुख्य अंश है। इस अध्याय में प्ररित पौलुस व्याख्यान करते है कि क्यों मसीह के पुनरूत्थान को समझना और उस पर विश्वास करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुनरूत्थान निम्नांकित कारणों के कारण महत्वपूर्ण है: 1) यदि मसीह मृतकों में से जी नहीं उठे, तो विश्वासी भी जी नहीं उठेगें ( 1 कुरिन्थियों 15:12-15) 2) यदि मसीह मृतको में से जी नहीं उठे, तो उनका पापो के लिए बलिदान प्रर्याप्त नहीं था ( 1 कुरिन्थियों 15:16-19)। यीशु के पुनरूत्थान ने यह साबित किया कि यीशु की मृत्यु परमेश्वर के द्वारा हमारे पापों के प्रायश्चित के निमित्त ग्रहण की गई। यदि वह साधारण मरते और मरे ही रहते, तो यह संकेत मिलता कि उनका बलिदान प्रर्याप्त नहीं था। जिसके फलस्वरूप विश्वासियों को उनके पापों से क्षमा नही मिलती और वह मर जाने के बाद मरे ही रहते (1 कुरिन्थियों 15:16-19)। अनन्त जीवन जैसी कोई वस्तु न होती (यहुन्ना 3:16) ‘‘परन्तु सचमुच मसीह मृतकों मे से जो उठा है और जो सो गए हैं उनमें वह पहला फल हुआ’’ (1कुरिन्थियों 15:20)।
अंतत: धर्मशास्त्र निरभ्र है कि जो यीशु मसीह पर विश्वास करते हैं वे उसकी भाँति अनन्त जीवन के लिए जी उठेंगे (1कुरिन्थियों 15:20-23)। पहला कुरिन्थियों इस बात का वर्णन करता है कि कैसे मसीह का पुनरूत्थान यीशु की पाप पर विजय को प्रमाणित करता है और हम को पाप पर विजय के साथ जीने की शक्ति प्रदान करता है । (1कुरिन्थियों 15:24-34)। यह उस अविनाशी देह को जो हम प्राप्त करेंगें उसके महिममय स्वभाव उल्लेख करता है (1कुरिन्थियों 15:35-49)। यह उदघोषित करता है कि मसीह के पुनरूत्थान के फलस्वरूप, सब जो उस पर विश्वास करते है वे मृत्यु पर परम जय पा चुके हैं (1कुरिन्थियों 15:50-58)।
मसीह के पुनरूत्थान की सच्चाई क्या ही यशस्वी है। ‘‘इस लिए, हे मेरे प्रिय भाईयों दृढ और अटल रहो, और प्रभु के कार्य में सर्वदा बढते जाओ क्योंकि यह जानते है कि तुम्हारा परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है (1कुरिन्थियों 15:58)। बाईबल के अनुसार यीशु मसीह का पुनरूत्थान निश्चित रूप से सत्य है। बाईबल मसीह के पुनत्थान को तसदीक करती है, इस बात को भी तसदीक करती है कि यह 500 से ज्यादा लोगों द्वारा देखा गया, और यीशु के पुरूत्थान के ऐतिहासिक तथ्य पर महत्पूर्ण मसीह शिक्षाएं (मसीही विश्वास ) बनाने के लिए अग्रसारित करती है।
क्या यीशु मसीह का पुनरूत्थान सत्य है ?
वर्जिन जन्म इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
प्रश्न: वर्जिन जन्म इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर: कुंवारी जन्म के सिद्धांत महत्वपूर्ण बात महत्वपूर्ण (यशायाह 7:14 है, मैथ्यू 1:23, 1:27 ल्यूक, 34). पहला, है कि कैसे इंजील घटना का वर्णन करता है देखो. मैरी के सवाल के जवाब में, "ऐसा कैसे हो जाएगा"(ल्यूक 1:34), गाब्रिएल कहते हैं, "पवित्रा आत्मा तुम पर आ जाएगा, और परमप्रधान की सामर्थ आप साया होगा" (ल्यूक 1:35). परी डर इन शब्दों के साथ नहीं मैरी से शादी करने के लिए यूसुफ को प्रोत्साहित करती है: "क्या उसके कल्पना की है पवित्रा आत्मा से है" (मैथ्यू 1:20). मैथ्यू कहा गया है कि कुंवारी "करने के लिए पवित्र आत्मा के माध्यम से बच्चे के साथ होना पाया गया" (मैथ्यू 1:18). गलातिंस 4:4 भी वर्जिन जन्म सिखाता है: "भगवान उनके बेटे, एक औरत का जन्म हुआ भेजा."
इन पस्सगेस से, यह निश्चित रूप से स्पष्ट है कि यीशु ने 'जन्म पवित्र आत्मा मैरी शरीर के भीतर काम करने का परिणाम था. (आत्मा) सारहीन और सामग्री (मैरी के गर्भ) दोनों शामिल थे. बेशक मेरी, खुद को नहीं भरना, और है कि अर्थ में वह एक बस सकता था "पोत." केवल भगवान का अवतार का चमत्कार प्रदर्शन कर सकता है.
हालांकि, मरियम और यीशु के बीच शारीरिक संबंध से इनकार संकेत है कि यीशु सच में मानव नहीं था होता. पवित्रा शास्त्रा सिखाता है कि यीशु ने पूरी तरह से मानव हमारे जैसे एक भौतिक शरीर के साथ था. यह वह मरियम से प्राप्त की. इसी समय, पूरी तरह से यीशु परमेश्वर था, एक अनन्त, निष्पाप (प्रकृति के साथ जॉन 1:14, 1 तीमुथियुस, 3:16 इब्रियों 2:14-17).
यीशु ने पाप में पैदा नहीं हुआ; था कि, वह कोई पाप प्रकृति (इब्रियों 7:26) था. यह प्रतीत होता है कि पाप प्रकृति पीढ़ी से पीढ़ी को पिता के माध्यम से पारित हो जाता है (5:12 रोम, 17, 19). वर्जिन जन्म पाप प्रकृति का संचरण सिर्चुम्वेंतेद और अनन्त भगवान की अनुमति के लिए एक सही आदमी बन जाते हैं.
वर्जिन जन्म इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
क्या यीशू को शुक्रवार को क्रूस पर चढाया गया था ?
प्रश्न: क्या यीशू को शुक्रवार को क्रूस पर चढाया गया था ? यदि ऐसा हुआ था और वह रविवार को पुनर्जीवित हुए तो उन्होने तीन दिन कबर में कैसे बिताए ?
उत्तर: बाईबल स्पष्टता से नहीं बताती कि सप्ताह के किस दिन यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया था। व्यापक रूप से दो विचारों के अनुसार शुक्रवार और बुधवार के दिन को माना जाता है । कुछ एक, वैसे, दोनों शुक्रवार और बुधवार के तर्क के समन्वय का उपयोग कर रहे हैं, वह बृहस्पतिवार के लिए तर्क करते हैं।
यीशु ने मत्ती 12:40 में कहा, ‘‘योना तीन दिन और तीन रात जल-जन्तु के पेट में रहा वैसे ही मनुष्य का पुत्र भी तीन दिन और तीन रात पृथ्वी के भीतर रहेगा’’। जो शुक्रवार के दिन क्रूस पर चढाये जाने के लिए तर्क करते हैं वे कहते हैं कि अभी भी मानने के योग्य कि वह कबर में तीन दिन थे। पहली शताब्दी के यहूदियों के दिमाग में, दिन के एक हिस्से को भी सम्पूर्ण दिन मान लिया जाता था। जबकि यीशु शुक्रवार के हिस्से में, सारे शनिवार, और रविवार के एक हिस्से में कबर में थे- उन्हे ऐसा माना जा सकता है कि कबर में तीन दिन रहे। शुक्रवार के लिए प्रमुख तर्को में से एक मरकुस 15:42 में पाया जाता है, जहाँ लिखा है कि यीशु ‘‘सब्त से एक दिन पहले’’ क्रूस पर चढाए गए। यदि वह सप्ताहिक सब्त था यानि शनिवार, तब यह तथ्य शुक्रवार को क्रूस पर चढाए जाने की बात को मानने के लिए बाध्य करता है। एक और शुक्रवार का तर्क कहता है मत्ती 16:21 और लूका 9:22 जैसे पद यह सिखाते हैं कि यीशु तीसरे दिन जी उठेंगे: इसलिए; उन्हें सम्पूर्ण तीन रात और दिन कबर में रहने की आवश्यकता नहीं थी। परन्तु जबकि कुछ अनुवाद इन पदो के लिए ‘‘तीसरे दिन’’ का उपयोग करते हैं, सभी नहीं, और न ही सभी सहमत होते हैं कि ‘‘तीसरे दिन’’ इन पदों को अनुवाद करने का सबसे बेहतर अनुवाद है । इसके साथ मरकुस 8:31 लिखा है कि यीशु तीन दिन बाद जी उठेंगे।
बृहस्पतिवारका तर्क शुक्रवार के विचार का विस्तार करता है और मुख्यता यह तर्क कहता है कि मसीह के दफनाए जाने से लेकर रविवार की सुबह तक बहुत सारी घटनाए घटित हुई (कुछ 20 के लगभग मानते हैं ) जो शुक्रवार की संध्या से लेकर रविवार की सुबह तक घटित होने के लिए बहुत अधिक है। बृहस्पतिवार के दृष्टिकोन के समर्थक जताते हैं कि यहाँ एक विशेषकर समस्या है यहूदियों का सब्त, शनिवार जो शुक्रवार और रविवार के बीच में केवल एक ही सम्पूर्ण दिन है। एक अतिरिक्त दिन या दो इस समस्या को दूर कर देता हैं । बृहस्पति के पक्ष में बोलने वाले इस तरह से तर्क कर सकते हैं कि: मान लो कि आपने एक मित्र को सोमवार की संध्या से नहीं देखा। जब आप उसेअगली बार देखते है वह बृहस्पति की सुबह होती है और आप कहते हैं, ‘‘मैने तुम्हें तीन दिन तक नहीं देखा’’ जबकि व्यावहारिक रूप से केवल 60 घंटे (2.5 दिन) हुए थे। यदि यीशु को बृहस्पतिवार का क्रूस पर चढ़ाया गया था, यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे इसे तीन दिन माना जा सकता है।
बुधवार का विचार ब्यान करता है कि उस सप्ताह में दो सब्त थे। पहले के बाद ( वह जो कि क्रूस पर चढाए जाने की संध्या को हुए [मरकुस 15:42; लूका 23:52-54] , स्त्रीओं ने मसाले खरीदे- यह देखें कि उन्होने अपनी खरीददारी सब्त के बाद की (मरकुस 16:1) । बुधवार के मत से यह धारणा है कि यह फसह का सब्त था (लैव्यव्यस्था 16:29-31, 23:24-32, 39 जहाँ उच्चपवित्र दिनों का उल्लेख सब्त के रूप में किया जो आवश्यक रूप से सप्ताहिक सब्त नहीं थे)। उस सप्ताह दूसरा सब्त विधिवत सप्ताहिक सब्त था। देखें लूका 23:56, जिन स्त्रीयों ने पहले सब्त के बाद मसालो की खरीददारी की वापस लौटी और मसालो को तैयार किया, फिर ‘‘सब्त के दिन आराम किया’’ (लूका 23:56)। यह तर्क यह ब्यान करता है कि वह सब्त के बाद मसाले नहीं खरीद सकती थी, और फिर भी सब्त से पहले उन मसालों को तैयार कर सकती - जब तक वहाँ पर दो सब्त न हों । दो सब्त के विचार के साथ, यदि मसीह बृहस्पतिवार को क्रूस पर चढ़ाए गए, तब उच्च पवित्र सब्त (फसह) बृहस्पतिवार को सूर्य ढलने के बाद शुरू हो गया होगा और शुक्रवार को सूर्य ढलने पर समाप्त यानि सप्ताहिक सब्त या शनिवार के शुरू होने पर हुआ होगा । पहले सब्त (फसह) के बाद मसालो को खरीदने का अर्थ यह होता है कि उन्होंने शनिवार को उन्हें खरीदा और सब्त का उल्लंधन कर रही होती ।
इसलिए बुधवार के दृष्टिकोन के अनुसार यही एक सही व्याख्या है जो स्त्रीयों के और मसालो के विवरण की अवहेलना नही करती और इस के अनुसार मत्ती 12:40 यीशु बुधवार को क्रूस पर चढ़ाए गए यथाशब्द रूप में लिया जा सकता है। सब्त जो उच्च पवित्र दिन (फसह) बृहस्पतिवार को था । स्त्रीयों ने शुक्रवार को (उसके बाद) मसालों को खरीदा और वापस लौटी और उसी दिन मसालों को तैयार किया, शनिवार जो कि सप्ताहिक सब्त है उन्होने आराम किया, फिर रविवार को जल्दी मसालो को कबर पर ले आई। यीशु बुधवार को सूर्य अस्त होने के निकट दफनाए गए थे, जो यहूदी कैलंडर के बृहस्पतिवार का आरंभ था। यहूदी कलेण्डर का उपयोग करते हुए, आपके पास बृहस्पतिवार रात (रात एक), बृहस्पतिवार दिन (दिन एक), शुक्रवार रात (रात दो), शुक्रवार दिन (दिन दो), शनिवार रात (रात तीन), शनिवार दिन (दिन तीन)। हम ठीक-ठीक नहीं जानते वह कब जी उठे, परन्तु हम जानते हैं कि वह रविवार सूर्योदय से पहले जी उठे थे (यहुन्ना 20:1, मरियम मगदलीनी आई ‘‘जब अन्धेरा ही था’’) इसलिए वह शनिवार संध्या को सूर्य अस्त होने के तुरन्त बाद जल्दी जी उठ गये होगें, जो यहूदियों के लिए सप्ताह के पहले दिन का आरभ्भ था।
एक बुधवार के विचार के साथ एक सम्भव समस्या यह है कि जो शिष्य यीशु के साथ इम्माउस के मार्ग में ‘‘उसी दिन’’ चले जिस दिन वह पुनर्जीवित हुए थे (लूका 24:13)। शिष्य, जिन्होने यीशु को नहीं पहचाना था उसको यीशु के क्रूस पर चढाए जाने के विषय में बताते है (24:20) और कहते हैं कि ‘‘इस घटना को हुए तीसरा दिन है’’ (24:21)। बुधवार से लेकर रविवार तक चार दिन है। एक सम्भव व्याख्या यह है कि उन्होने मसीह के दफनाए जाने के बाद बुधवार की संध्या से गिना, जो कि यहूदियों के बृहस्पति को शुरू करता है और बृहस्पतिवार से रविवार तक तीन दिन गिने जा सकते हैं।
इस महान योजना के तेह्त, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि सप्ताह के किस दिन मसीह को क्रूस पर चढाया गया था । यदि यह महत्वूर्ण होता तो परमेश्वर का वचन स्पष्टता से उस दिन और उस समय को बताता । महत्वूर्ण बात यह है कि वह मरा और वह शारीरिक रूप से मुर्दो में से जी उठा। उतना ही महत्वपूर्ण है कि वह उस दंड को उठाने के लिए मर गया- जिसके योग्य सब पापी हैं । यहुन्ना 3:16 और 3:36 दोनो उदघोषित करते हैं कि उस पर विश्वास करने का फल अनन्त जीवन है ! यह भी उतना ही सत्य है चाहे वह बुधवार, बृहस्पतिवार या शुक्रवार को क्रूस पर चढाए गए हो।
क्या यीशू को शुक्रवार को क्रूस पर चढाया गया था ? यदि ऐसा है तो एक, वह कब्र में कैसे तीन दिनों के खर्च पर क्रूस पर चढ़ाया अगर वह रविवार को पुनर्जीवित किया गया था?
क्या यीशु अपनी मृत्यु और पूनरूत्थान के बीच में नरक गए थे ?
प्रश्न: क्या यीशु अपनी मृत्यु और पूनरूत्थान के बीच में नरक गए थे ?
उत्तर: इस प्रश्न के विषय में बहुत सारी उलझन है। यह विचार मुख्यत: प्रेरितों के विश्वास से आता है जो अभिव्यक्त करता कि ‘‘वह नरक में गए’’। कुछ धर्मशास्त्र के वचन भी है जो यीशु के ‘‘नरक’’ में वर्णन करते हैं, परंतु यह निर्भर करता है कि इन वचनों को कैसे अनुवाद किए जाता है। इस मुद्दे का अध्ययन करते हुए, सर्वप्रथम यह समझना महत्वपूर्ण है कि बाईबल मरे हुओ के स्थान के बारे में क्या सिखाती है।
इब़्रानी भाषा में, धर्मशास्त्र में जो शब्द मरे हुओ के स्थान का वर्णन करने लिए के में उपयोग किया जाता है वह “शिलो” है। इस का अर्थ ‘‘मरे हुआ का स्थान’’ या ‘‘दिवंगत आत्माओं का स्थान’’ है । नये नियम का यूनानी शब्द जो की नरक के लिए उपयोग होता है वह ‘‘अद्योलोक’’ है, यह भी ‘‘मरे हुओ के स्थान’’ के संदर्भ में है। अन्य नये नियम के वचन संकेत करते हैं कि शिलों/अद्योलोक एक अस्थाई जगह है, जहाँ आत्माओं को रखा जाता है जहाँ पर वे अंतिम पुनरूस्थान और न्याय की प्रतीक्षा करती हैं। प्रकाशित वाक्य 20:11-15 दोनो में स्पष्ट अन्तर बताता है। नरक (आग की झील) जो नाश हो गए हैं उनके लिए स्थाई और अंतिम न्याय का स्थान है। ‘‘अद्योलोक’’अस्थाई का स्थान है। इसलिए, नहीं, यीशु नरक नहीं गए क्योंकि नरक भविष्य का स्थान है, जो केवल बडे श्वेत सिहंसन के न्याय के बाद प्रभाव में आएगी (प्रकाशितवाक्य 20:11- 15)।
शिलो/अद्योलोक दो भागों का स्थान है (मत्ती 11:23, 16:18; लूका 10:15, 16:23; प्रेरितो के काम 2:27- 31), बचे हुए और खोए हुओ का वासस्थान। बचे बचे हुओ के वासस्थान को ‘‘जन्नत’’ और ‘‘इब्राहिम की गोद’’ कहा जाता था। बचे हुओ के वासस्थान और नाश हुओ के वासस्थान ‘‘गहरी खाई’’ के द्वारा अलग किए हुए है (लूका 16:26)। जब यीशु स्वर्ग में गए, उसने जन्नत में रहने वालों (विश्वासियों) को अपने साथ लिया (इफिसियों 4:8- 10)। परन्तु शिलो/अद्योलोक नाश हुए वालो का भाग में कोई परिवर्तन नही आया था। सभी अविश्वासी मृतक वहाँ जाते हैं और अपने भविष्य के अंतिम न्याय की प्रतीक्षा करते हैं । क्या यीशु शिलो/अद्योलोक में गए ? इफिसियो 4:8- 10 और 1 पतरस 3:18- 20 के अनुसार, हाँ ।
कुछ उलझन भजन 16:10- 11 जैसे अंशों से उत्पन्न हुई जिस प्रकार से वे किंग जेम्ज़ वर्ज़न में अनुवाद किए गए, ‘‘क्योंकि तू मेरे प्राण को अधोलोक में न छोड़ेगा न अपने पवित्र भक्त को सड़ने देगा.............तू मुझे जीवन का रास्ता दिखाएगा’’ । ‘‘नरक’’ इस पद का सही अनुवाद नहीं है। ‘‘कबर’’ या ‘‘शिलो’’ सही अर्थ है। यीशु ने अपने पास के चोर से कहा, ‘‘कि आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा (लूका 23:43 )। यीशु का शरीर कब़र में था; उसकी आत्मा शिलो/अद्योलोक के जन्नत गई । फिर उसने सभी धर्मी मृतकों को जन्नत से निकाला और उन्हें स्वर्ग में ले गया । दुर्भागयवंश, बहुत से बाईबल के अनुवादों में अनुवादक इब़्रानी और यूनानी भाषा के ‘‘शिलो’’ ‘‘अद्योलोको’’ और ‘‘नरक’’ के लिए प्रयोग किए शब्दों के अनुवाद में एक से (समनुरूप) नहीं हैं और न ही सही (यथातथ्य) हैं।
कुछ एक का दृष्टिकोण यह है कि यीशु नरक में गए थे कि शिलो/अद्योलोक की दुख सहने वाली ओर गए और हमारे पापों के लिए और अधिक दंड उठाए। यह विचार बाईबल की शिक्षा के अनुकूल नहीं है। यह यीशु की क्रूस पर मृत्यु और उसका हमारी जगह दु:ख उठाना था जिस ने हमारे छुटकारे के लिए प्रर्याप्त प्रबन्ध कर दिया। यह उसका बहाया हुआ लहू था जिसके फलस्वरूप हमारे अपने पाप भी घुल गए (यूहा 1:7- 9) । जब वह क्रूस पर लटक हुए, उन्होने समस्त मानव जाति के पाप का बोझ अपने ऊपर ले लिया। वह हमारे लिए पाप बन गया:‘‘जो पाप से अज्ञात था, उसी को उसने हमारे लिए पाप ठहराया कि हम उस में होकर उसकी धर्मीकता बन जाएँ (2 कुरिन्थियों 5:21)। यह पाप का मढ़ जाना हमारा यीशु के गतसमनी के बाग में पाप के प्याले के साथ संघर्ष को समझने में सहायता करता है, जो क्रूस पर उस पर उंडेला जाना था।
जब यीशु क्रूस पर ज़ोर से पुकारा, ‘‘हे पिता, तूने मुझे क्यो छोड़ दिया ?’’ (मत्ती 27:46); तब उन पापों को जो उस पर डाल दिए गये तभी उस समय वह पिता से अलग कर दिया गया। जब उसने अपनी आत्मा को छोड़ दिया, उसने कहा, ‘‘हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ’’ (लूका 23:46)। उसका हमारी स्थान पर दु:ख उठाना पूरा हो गया था। उसकी आत्मा अद्योलोक की जन्नतवाली ओर चली गई थी। यीशु नरक नहीं गए। यीशु का कष्ट जिस पल वह मरे सामप्त हो गया । पाप का दाम चुका दिया गया । फिर वे अपने शरीर के पूनर्जीवित होने की और उसके उठाए जाने पर महिमा में लौटने की प्रतीक्षा में रहे । क्या यीशु नरक गए ? नहीं । क्या यीशु शिलो/अद्योलोक गए ? हाँ।
क्या यीशु अपनी मृत्यु और पूनरूत्थान के बीच में नरक गए थे ?
अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?
प्रश्न: अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?
उत्तर: १पतरस ३:१८-१९ व्याख्या करता है, "इसलिये कि मसीह ने भी, अर्थात अधर्मीयों के लिये धर्मी ने पापों के कारण एक बार दुख उठाया, ताकि हमें परमेश्वर के पास पहुचाये : वह शरीर के भाव से तो द्घात किया गया, पर आत्मा के भाव से जिलाया गया । उसी में उस ने जाकर कैदी आत्माओं को भी प्रचार किया ।"
पद १८ में वाक्यांश "आत्मा के भाव," का शब्द-विन्यास पूर्ण रूप से वाक्यांश "शरीर के भाव" जैसा है । इसलिये यह सबसे अच्छा प्रतीत होता है कि "आत्मा" शब्द को उसी क्षेत्र से संबंद्ध किया जाये कि शब्द "शरीर" है । शरीर और आत्मा मसीह के शरीर और आत्मा है । शब्द "जिलाया गया" "आत्मा ने भाव से" इस सत्य की ओर इशारा करते हैं कि, मसीह के पापों को सहने तथा मृत्यु ने उसकी मानव आत्मा को पिता से अलग कर दिया था (मत्ती २७:४६) । अंतर शरीर और आत्मा में है, जैसा कि (मत्ती २७:४१) में है तथा रोमियो १:३-४ में है, यीशु के शरीर तथा पवित्र आत्मा में नहीं है । जब पाप के लिये यीशु का प्रायश्चित पूरा हो गया, उसकी आत्मा ने वो मेल-जोल फिर ग्रहण कर लिया जो टूट गया था ।
पहला पतरस ३:१८-२२ यीशु के दुख उठाने (पद १८) तथा उसकी महिमा (पद २२) के बीच एक आवश्यक संबंध की व्याख्या करता है । केवल पतरस एक निश्चित सूचना देता है कि दोनों द्घटनाओं के बीच में क्या हुआ था । पद १९ में शब्द "प्रचार" वो नए नियम में एक साधारण शब्द नहीं है जो कि सुसमाचार के उपदेशों की व्याख्या करता हो । उसका साहित्यिक अर्थ है सूचना की द्घोषणा करना । यीशु ने दुख उठाया तथा क्रूस पर मरा, तथा उसका शरीर मृत हो गया, तथा उसकी आत्मा मर गई जब उसे पाप बनाया गया । परन्तु उसकी आत्मा को जीवित किया गया तथा उसने उसे पिता को लौटा दिया । पतरस के अनुसार, अपनी मृत्यु तथा अपने पुनरूत्थान के बीच में किसी समय यीशु ने कैद की हुई आत्माओं में जाकर द्घोषणा की ।
पहली बात यह कि, पतरस ने लोगों का उल्लेख 'जीवात्माओं' के रूप में किया "आत्माओं के रूप में नहीं (१पतरस ३:२०) । नए नियम में शब्द "आत्मा" स्वर्गदूतों या दुष्टों के लिये किया जाता था, मनुष्यों के लिये नहीं; तथा पद २२ उसका अर्थ लिये हुए प्रतीत होता है । और यह भी, कि बाइबल में कहीं भी हमको यह नहीं बताया गया है कि यीशु नरक में भी गया । प्रेरितों के काम २:३१ कहता है कि वह पाताल गया, परन्तु "पाताल" नरक नहीं है । "पाताल" शब्द उस अस्थाई जगह के संबंध में है जहॉ मुर्दों को छोड़ा जाता है तथा वो पुनरुत्थान के दिन की प्रतीक्षा करते हैं । प्रकाशित वाक्य २०:११-१५, में या में, दोनों के बीच में स्पष्ट भेद बताता है । नरक एक स्थाई तथा निर्यायक जगह है खोए हुओं के लिये । पाताल (अधोलोक) एक अस्थाई जगह है ।
हमारे प्रभु ने पिता को अपनी आत्मा वापस दे दी, मरा, तथा मृत्यु और पुनरुत्थान के बीच में किसी समय, मुर्दों के राज्य में गया जहॉ उसने जीव आत्माओं को संदेश दिया (गिरे हुए स्वर्गदूत; यहूदा ६ देखें) जो कि कैसे ना कैसे नूह के समय की बाढ़ से संबंधित थे । पद २० इसको स्पष्ट करता है १पतरस हमें यह नहीं बताता कि उसने इन कैद की हुई जीवआत्माओं को क्या द्घोषणा करी, परन्तु वो उद्धार का संदेश नहीं हो सकता क्योंकि स्वर्गदूतों का उद्धार नहीं हो सकता (इब्रानियों २:१६) । वो संभवतया शैतान तथा उसके समुह के ऊपर विजय की द्घोषणा थी (१पतरस ३:२२; कुलुस्सियों २:१५) । इफिसियों ४:८-१० भी यह प्रकट करता प्रतीत होता है कि मसीह "स्वर्गलोक" (लूका १६:२०; २३:४३) गया तथा अपने साथ स्वर्ग में उन सब को ले गया जिन्होंने उसकी मृत्यु से पहले उस पर विश्वास किया था । अनुच्छेद बहुत अधिक ब्योरा नहीं देता कि क्या द्घटित हुआ था ।
इसलिये, कुल मिलाकर, बाइबल पूरी तरह से स्पष्ट नहीं करती कि मसीह ने अपनी मृत्यु तथा पुनरूत्थान के मध्य तीन दिन तक क्या किया । यद्यपि, ऐसा प्रतीत होता है कि वो गिरे हुए स्वर्गदूतों पर तथा/या अविश्वासियों पर विजय का प्रचार कर रहा था । जो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं वो यह है कि यीशु लोगों को उद्धार पाने का दूसरा अवसर नहीं दे रहा था । बाइबल हमें बताती है कि मृत्यु के पश्चात हमें न्याय का सामना करना पड़ता है (इब्रानियों ९:२७), दूसरे अवसर का नहीं । वहॉ वास्तव में कोई परिनिश्चायक स्पष्ट उत्तर नहीं है कि यीशु अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य क्या कर रहा था । शायद यह उन रहस्यों में से एक है जो हम समझेंगे जब एक बार हम महिमा तक पहुचेंगे ।
अपनी मृत्यु तथा पुनरुत्थान के मध्य तीन दिन तक यीशु कहाँ था?