यीशु मसीह कौन है?
प्रश्न: यीशु मसीह कौन है?
उत्तर: यीशु मसीह कौन है? "क्या परमेश्वर का अस्तित्व है?" इस प्रश्न के विपरीत बहुत कम लोगों ने यह प्रश्न किया है कि क्या यीशु मसीह का कोई अस्तित्व था । यह सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि यीशु सच में एक मनुष्य था जो लगभग २००० वर्ष पहले इज़रायल में धरती पर चला-फिरा था । वाद-विवाद तब शुरू होता है जब यीशु की पूर्ण पहचान के विषय पर विचार होता है । लगभग हर एक मुख्य धर्म यह शिक्षा देता है कि यीशु एक भविष्यवक्ता, या एक अच्छा शिक्षक, या एक धार्मिक पुरुष था । समस्या यह है, बाइबल हमें बताता है कि यीशु अनन्तता में एक भविष्यवक्ता, एक अच्छे शिक्षक, या एक धार्मिक पुरुष से अधिक था ।
सी एस लुईस अपनी पुस्तक मेयर क्रिसचैनिटि (केवल मसीही धर्म) में यह लिखते हैं, "मैं यहाँ पर किसी को भी उस मूर्खता पूर्ण बात को कहने से रोकने का प्रयास कर रहा हूँ जो कि लोग अकसर उसके (यीशु मसीह) के बारे में कहते हैं : "मैं यीशु को एक महान नैतिक शिक्षक के रूप में स्वीकार करने को तैयार हूँ, परन्तु मैं उसके परमेश्वर होने का दावे को स्वीकार नहीं करता ।" यह एक वो बात है जो हमें नहीं कहनी चाहिये । एक पुरुष जो केवल एक मनुष्य था तथा उस प्रकार की बातें कहता था जैसी यीशु ने कही एक महान नैतिक शिक्षक नहीं हो सकता । या तो वो एक पागल व्यक्ति हो सकता है-उस स्तर पर जैसे कोई व्यक्ति कहे कि वो एक पका हुआ अंडा है-या फिर वो नरक का शैतान हो सकता है । आपको अपना चुनाव करना चाहिये । या तो यह व्यक्ति, जो था, और है, परमेश्वर का पुत्र है, या फिर कोई पागल या कुछ और बहुत बुरा … आप मूर्खता के लिए उसे चुप करा सकते हैं, एक राक्षस के रूप में उसपर थूक सकते हैं तथा उसे मार सकते हैं; या आप उसके चरणों में गिरकर उसे प्रभु तथा परमेश्वर कह सकते हैं । परन्तु हमें किसी भी कृपालु मूर्खता के साथ यह निर्णय नहीं लेना चाहिये कि वह एक महान शिक्षक था । उसने यह विकल्प हमारे लिये खुला नहीं छोड़ा है । उसकी ऐसी कोई मंशा नहीं थी ।"
फिर, यीशु ने कौन होने का दावा किया? बाइबल क्या कहती है कि वह कौन था? सबसे पहले , यूहन्ना १०:३० में यीशु के शब्दों की ओर देखते हैं, "मैं और पिता एक हैं ।" पहली दृष्टि में, ये परमेश्वर होने का दावे के रूप में प्रतीत नहीं होता । कैसे भी, उसके कथन पर यहूदियों की प्रतिक्रिया को देखें, "यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि भले काम के लिए हम तुझे पतथरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण, और इसलिए कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बताता है" (यूहन्ना १०:३३) । यहूदियों ने यीशु के कथन को परमेश्वर होने का दावा समझा था । निम्नलिखित पदों में यीशु ने यहूदियों को सुधारने के लिए कभी भी यह नहीं कहा, "मैंने परमेश्वर होने का दावा नहीं किया था" । यह संकेत देता है कि यीशु यह घोषणा करते हुए कि "मैं और पिता एक है" (यूहन्ना १०:३०) सच में कह रहा था कि वो परमेश्वर है । यूहन्ना ८:५८ एक अन्य उदाहरण है । यीशु ने कहा, "मैं तुम से सच-सच कहता हूँ कि इससे पहले कि इब्राहिम उत्पन्न हुआ मैं हूँ !" फिर से, प्रतिक्रिया में यहूदियों ने पत्थर उठाकर यीशु को मारना चाहा (यूहन्ना ८:५९) । यीशु ने जो अपनी पहचान "मैं हूँ" करके दी वो पुराने नियम में परमेश्वर के नाम का प्रत्यक्ष प्रयोग था (निगर्मन ३:१४) । यहूदी फिर से यीशु को क्यों पत्थरवाह करना चाहते थे अगर उसने कुछ ऐसा नहीं कहा था जिसे वो परमेश्वर की निन्दा करना समझ रहे थे, अर्थात, परमेश्वर होने का दावा?
यूहन्ना १:१ कहता है "वचन परमेश्वर था ।" यूहन्ना १:१४ कहता है "वचन देहधारी हुआ ।" यह स्पष्टता से संकेत करता है कि यीशु ही देह रूप में परमेश्वर है थोम, जो कि शिष्य था, यीशु के संबंध में कहता है, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर" (यूहन्ना २०:२८) । यीशु ने उसे नहीं सुधारा । प्रेरित पौलुस उसका इस रूप में वर्णन करता है " ... अपने महान परमेश्वर और उद्धारकर्ता यीशु मसीह" (तीतुस २:१३) । प्रेरित पतरस भी ऐसा ही कहता है, " ... हमारे परमेश्वर और उद्धारकर्ता यीशु मसीह" (२पतरस १:१) । पिता परमेश्वर भी यीशु की पूर्ण पहचान का साक्षी है, "परन्तु पुत्र से कहता है, कि हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन युगानुयुग रहेगा, तेरे राज्य का राजदण्ड है ।"
इसलिए, जैसा कि सी एस लुईस ने सिद्ध किया, कि यीशु को एक अच्छे शिक्षक के रूप में मानना कोई विकल्प नहीं है । यीशु ने स्पष्ट रूप से तथा अकाट्य रूप से परमेश्वर होने का दावा किया । अगर वो परमेश्वर नहीं है, तो फिर वो झूठा है, तथा इसलिए एक पैगंबर; अच्छा शिक्षक, या धार्मिक पुरुष नहीं है । निरंतर यीशु के शब्दों का व्याख्यान करने के प्रयासों में, आधुनिक विद्वान यह दावा करते हैं कि "वास्तविक ऐतिहासिक यीशु" ने वो कई बातें नहीं कहीं जो कि बाइबल उसे प्रदान करती है । परमेश्वर के वचन के साथ हम विवाद करने वाले कोन होते हैं कि यीशु ने यह कहा या नहीं कहा? एक विद्वान में, जो कि यीशु के दो हज़ार साल से अलग है, इतना अर्न्तज्ञान कैसे है सकता है कि यीशु ने यह कहा या नहीं कहा जितना कि उनमें जो उसके साथ रहे, उसकी सेवा करी तथा स्वयं यीशु से शिक्षा पाई (यूहन्ना १४:२६)?
यीशु की वास्तविक पहचान के ऊपर प्रश्न इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इस बात से क्यों फर्क पड़ता है कि यीशु परमेश्वर है या नहीं? सबसे महत्वपूर्ण कारण कि यीशु को परमेश्वर होना था वो यह है कि अगर यीशु परमेश्वर नहीं है, तो उसकी मृत्यु पूरे संसार के पापों के जुर्माने की कीमत अदा करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती थी (१यूहन्ना २:२) । केवल परमेश्वर ही ऐसा असीम जुर्माना भर सकता है (रोमियो ५:८; २कुरिन्थियों ५:२१) । यीशु को परमेश्वर होना था जिससे वो हमारा उधार चुका सकता । यीशु को मनुष्य होना था जिससे वो मर सके । केवल यीशु मसीह में विश्वास करके ही उद्धार पाया जा सकता है ! यीशु की प्रभुता ही है कि वो ही उद्धार का एकमात्र मार्ग है । यीशु की प्रभुता ही है कि उसने यह दावा नहीं किया (द्घोषणा की), "मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूँ । बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता" (यूहन्ना १४:६)
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यीशु मसीह कौन है?
क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?
प्रश्न: क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?
उत्तर: क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? मुझे यह बात काफी रोचक लगा कि इस बहस पर अधिक ध्यान दिया गया। हाल तक के सर्वेक्षण हमें यह बताते हैं कि आज के संसार में ९० प्रतिशत व्यक्ति परमेश्वर या किसी महान शक्ति पर विश्वास रखते हैं । फिर भी यह उत्तरदायित्व उन लोगों पर रखा जाता है जो कि विश्वास करते है कि परमेश्वर का अस्तित्व है कि वो यह प्रमाणित करें कि उसका वास्तविक रूप से कोई अस्तित्व है । मेरे हिसाब से, मैं सोचता हूँ कि इसके विपरीत होना चाहिये था।
यद्यपि, परमेश्वर का अस्तित्व प्रमाणित या अस्वीकृत नहीं किया जा सकता । बाइबल भी यहाँ तक कहती है कि हमें विश्वास के द्वारा यह स्वीकार करना चाहिये कि परमेश्वर का अस्तित्व है, "और विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोनी है, क्योंकि परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिये, कि वह है, और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है" (इब्रानियों ११:६) । अगर परमेश्वर की ऐसी इच्छा थी, तो वो प्रकट होता तथा सारे संसार को प्रमाणित कर देता कि उसका अस्तित्व है । परन्तु अगर वो ऐसा करता, तो फिर विश्वास की कोई आवश्यकता ना रहती । "यीशु ने उस से कहा, तूने तो मुझे देखकर विश्वास किया है, धन्य है वे जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया" (यूहन्ना २०:२९)
इसका यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर के आस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है । बाइबल घोषणा करता है, "आकाश ईश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है; और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है । दिन से दिन बातें करता है, और रात को रात ज्ञान सिखाती है । ना तो कोई बोली है और ना कोई भाषा जहाँ उसका शब्द सुनाई नहीं देता है । उसका स्वर सारी पृथ्वी पर गूँज गया है, और उसके वचन जगत की छोर तक पहुँच गए है, "(भजन संहिता १९:१-४) । तारों की ओर देखकर, इस ब्रहमाण्ड की विशालता को समझते हुए, प्रकृति के आश्चर्यों पर गौर करके, सूर्यास्त की सुन्दरता को देखते हुए-यह सारी वस्तुएँ एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर की ओर संकेत करती है । अगर यह काफी नहीं है, तो हमारे स्वयं के हृदयों में भी एक प्रमाण है । सभोपदेशक ३:११ हमें बताता है, "… उसने मनुष्यों के मन में अनादि-अनन्त काल का ज्ञान उत्पन्न किया है ... "। हमारे अपने स्वयं में गहराई तक कोई ऐसी चीज़ है जो यह पहचानती है कि इस जीवन से परे भी कुछ है तथा इस संसार से परे भी कोई है । हम इस ज्ञान को बौद्धिक रूप से झुठला सकते हैं, परन्तु हमारे में तथा हमारे द्वारा परमेश्वर की उपस्थिति फिर भी है । इस सबके उपरान्त, बाइबल हमें सचेत करती है कि कुछ लोग फिर भी परमेश्वर के अस्तित्व को झुठलायेंगें, "मूर्ख ने अपने मन में कहा है, कि कोई परमेश्वर है ही नहीं ।" (भजन संहिता १४:१) । क्योंकि अब तक के इतिहास में ९८ प्रतिशत से अधिक लोग, सारी संस्कृतियों में, सारी सभ्यताओं में, सारे महाद्वीपों पर किसी प्रकार के परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते है, तो इस विश्वास का कारण कुछ (या कोई) तो होगा ।
परमेश्वर के अस्तित्व के लिए बाइबल विवादों के साथ में, तार्किक विवाद भी है । पहला तत्वमीमांसात्मक विवाद है । तत्वविज्ञानी विवाद की सर्वाधिक चर्चित स्वरूप आधारभूत इस विषय का उपयोग करता है कि परमेश्वर को परमेश्वर के अस्तित्व का प्रमाण देना चाहिये । वो परमेश्वर की इस परिभाषा से आरंभ होता है जैसे, "इतना बड़ा कि उससे बड़े की कल्पना नहीं की जा सकती ।" फिर यह विवाद उठता है कि अस्तित्व में होना, अस्तित्व में ना होने से अधिक बड़ा है, और इसलिये सबसे बड़े कल्पनीय हस्ति को अस्तित्व में होना चाहिये । अगर परमेश्वर का आस्तित्व नहीं है तो परमेश्वर सबसे बड़ा कल्पनिय हस्ती नहीं हो सकता-परन्तु यह बात परमेश्वर की परिभाषा का खंडन करेगी । दूसरा उद्देश्यवादी विवाद है । उद्देश्यवादी विवाद यह है कि क्योंकि ब्रह्माण्ड ऐसा आश्चर्यजनक डिज़ायन (खाका) प्रदर्शित करता है, तो वहाँ पर कोई ईश्वरीय डिज़ायनर (खाकाकार) होना चाहिये । उदाहरण के रूप में, अगर धरती सूर्य से कुछ सौ मील पास या दूर होती, तो वह जीवन की उस प्रकार से सहायता करने योग्य नहीं होती जितनी वो आज है ।
अगर हमारे वातावरण में मौजूद तत्व केवल कुछ प्रतिशत अंश भिन्न हो, तो पृथ्वी पर सारे जीवित प्राणी मर जायेंगे । एक एकल प्रोटीन के अणु के संयोग से बनने की संभावनाएं १०२४३ में 1 होती है (जिसका मतलब है कि १० के ऊपर २४३० है) । एक एकल कोशाणु लाखों अणुओं से बना होता है । तीसरा तार्किक विवाद जो परमेश्वर के अस्तित्व के विषय में है वो है ब्रहमाण्ड संबंधित विवाद । हर परिणाम के पीछे कोई कारण होना चाहिये । यह ब्रहमाण्ड तथा इसमें की हर वस्तु एक परिणाम है । कोई ऐसी वस्तु भी होनी चाहिए जिसके कारण हर वस्तु अस्तित्व में आई । अंततः कोई वस्तु "बिना कारण" (निर्उद्देश्य) भी होनी चाहिए जो कि अन्य सब वस्तुओं के अस्तित्व में आने का कारण बने । वो "बिना-कारण" वस्तु ही परमेश्वर है । चौथा विवाद नैतिक विवाद के रूप में जाना जाता है । इतिहास में अब तक हर एक संस्कृति के पास किसी ना किसी प्रकार का नियम होता आया है । हर एक के पास सही और गलत का बोध है । हत्या, झूठ, चोरी तथा अनैतिकता को लगभग सदा से अस्वीकृत किया जाता है । इस सही और गलत का बोध अगर पवित्र परमेश्वर के पास से नहीं तो फिर कहाँ से आया?
इस सबके बावजूद भी, बाइबल हमें बताती है कि लोग परमेश्वर के स्पष्ट तथा अकाट्य ज्ञान को अस्वीकार करेंगे तथा इसके अतिरिक्त एक झूठ पर विश्वास करेंगे । रोमियो १:२५ घोषणा करता है, "उन्होनें परमेश्वर की सच्चाई को बदलकर झूठ बना डाला, और सृष्टि की उपासना और सेवा की, न कि उस सृजनहार की जो सदा धन्य है । अस्तु ।" बाइबल यह भी दावा करती है कि परमेश्वर पर विश्वास ना करने के लिए लोग निरूत्तर है, "क्योंकि उसके अनदेखे गुण, अर्थात उस की सनातन सामर्थ, और परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं, यहाँ तक कि वे निरूत्तर है" (रोमियो १:२०)
लोग परमेश्वर पर विश्वास ना करने का दावा इसलिए करते हैं कि उसमें "वैज्ञानिकता" नहीं है या "क्योंकि कोई प्रमाण नहीं है" । सच्चा कारण यह है कि एक बार लोग मान लेते हैं कि परमेश्वर है, उन्हें यह भी मानना पड़ेगा कि वो परमेश्वर के प्रति ज़िम्मेदार है तथा उन्हें परमेश्वर से उद्धार की आवश्यकता है (रोमियों ३:१३; ६:२३) । अगर परमेश्वर का अस्तित्व है, तो फिर हम उसके प्रति अपने कार्यों के प्रति ज़िम्मेदार हैं । अगर परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है, तो फिर हम जो चाहे वो कर सकते हैं बिना यह चिंता किये कि परमेश्वर हमारा न्याय करेगा । मैं विश्वास करता हूँ कि यही वजह है कि हमारे समाज में कई लोगों से विकास इतनी ज़ोर से क्यों चिपका हुआ है-लोगों को सृष्टिकर्ता परमेश्वर में विश्वास करने का एक विकल्प देने के लिए । परमेश्वर है और सब जानते हैं कि परमेश्वर है । पूर्णतया सत्य यह है कि कुछ लोग उसके अस्तित्व को असिद्ध करने का इतनी उद्दंडतापूर्वक प्रयास करते हैं कि एक विवाद जन्म ले लेता है ।
मुझे परमेश्वर के अस्तित्व के विषय एक अंतिम विवाद की अनुमति दें । मैं यह कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर है? मैं जानता हूँ कि परमेश्वर है क्योंकि प्रतिदिन मैं उससे बाते करता हूँ । उसका मुझसे बात करना मुझे सुनाई नहीं देता; परन्तु मुझे उसकी उपस्थिति की अनुभूति होती है, मैं उसकी अगुवाई महसूस करता हँ, मैं उसके प्रेम को जानता हूँ, मैं उसके अनुग्रह का अभिलाषी हूँ । मेरे जीवन में ऐसी द्घटनायें द्घटित हो चुकी हैं जिनका की परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई व्याख्या है ही नहीं । परमेश्वर ने मुझे इतने चमत्कारिक रूप से बचाया है तथा मेरा जीवन परिवर्तित किया है कि मैं उसके अस्तित्व को पहचानने तथा उसका गुणगान करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता । इनमें से कोई भी विवाद अपने आप में किसी को भी प्रेरित नहीं कर सकता जो इस बात को पहचानने से इन्कार करते हैं जो कि इतनी स्पष्ट है । अंत में, परमेश्वर का अस्तित्व विश्वास के द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिये (इब्रानियों ११:६) । परमेश्वर पर विश्वास अंधेरे में अंधी छलांग नहीं है, यह एक उजले कमरे में सुरक्षित कदम है जहाँ ९० प्रतिशत लोग पहले से ही खड़े हैं ।
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क्या परमेश्वर का अस्तित्व है? क्या परमेश्वर के अस्तित्व का कोई साक्ष्य है?
परमेश्वर का सदगुण क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?
प्रश्न: परमेश्वर का सदगुण क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?
उत्तर: जैसे कि हम इस प्रश्न के उत्तर देने का प्रयास करेंगे शुभ समाचार यह है कि परमेश्वर के विषय में बहुत कुछ है जिसे खोजा जा सकता है । बाइबल, ईश्वर का वचन, हमें बताता है ईश्वर का कैसा स्वरूप है, और ये भी वो कैसा नहीं है धर्मशास्त्र का संदर्भ पूर्णतया आवश्यक होता है, क्योंकि बाइबल के प्रमाणों के बिना, ईश्वर को समझने के लिए यह एक मात्र एक विचार होगा, जो कि स्वयं में त्रुटिपूर्ण होता है, विशेषतया ईश्वर को समझने में। (अय्यूब ४२:७) । यह कहना महत्वपूर्ण है कि हम यह समझने का प्रयास करें कि परमेश्वर कैसा है, एक बहुत बड़ी न्यूनोक्ति होगी ! इस बात की असफलता हमें दूसरे ईश्वर बनाने, उनका अनुसरण करने तथा उनकी उपासना करने का कारण बनेगी जो कि परमेश्वर की इच्छा के विपरीत है (निर्गमन २०:३-५) ।
परमेश्वर ने अपने बारे में प्रकट करने के लिए जो चुना है केवल उसे ही जाना जा सकता है । परमेश्वर की विशेषताओं या गुणों में से एक है "ज्योति" जिसका अर्थ है कि अपने बारे में जानकारी वो स्वयं प्रकट करता है (यशायाह ६०:१९; याकूब १:१७) । इस सत्य का, कि परमेश्वर ने स्वयं अपने बारे में जानकारी दी है, उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, ऐसा ना हो कि हम में से कोई उसके विश्राम में प्रवेश करने से छूटा रह जाए (इब्रानियों ४:१) । सृष्टि, बाइबल, तथा देहदारी शब्द (यीशु मसीह) हमारे यह जानने में सहायता करेंगे कि परमेश्वर कैसा है ।
इस बात को समझने से शुरूआत करते हैं कि परमेश्वर हमारा रचियता है तथा हम उसकी सृष्टि का एक हिस्सा है (उत्पत्ति १:१; भजन संहिता २४:१) परमेश्वर ने कहा कि मनुष्य उसके स्वरूप में बनाया गया है । मनुष्य को औरों की सृष्टि से ऊपर रखा तथा उसके उपर अधिकार दिया (उत्पत्ति १:२६-२८) । सृष्टि "पतन" के कारण शापित है परन्तु उसके कार्यों की झलक फिर भी प्रस्तुत करती है (उत्पत्ति ३:१७-१८; रोमियो १:१९-२०) । सृष्टि की विशालता, जटिलता, सुन्दरता तथा व्यवस्था पर विचार करते हुए उसकी विस्मयकारिता का बोध हो सकता है । परमेश्वर के कुछ नामों को पढ़ना हमारी इस खोज में सहायक हो सकता है कि परमेश्वर कैसा है । यह निम्नलिखित हैं :
एलोहीम -एकमात्र शक्तिशाली, ईश्वरीय (उत्पत्ति १:१)
अदोनाईं -प्रभु, मालिक से सेवक के संबंधों की ओर संकेत करते हुए (निर्गमन ४:१०; १३)
एल्एल्योन -परम प्रधान, सबसे शक्तिशाली (उत्पत्ति १४:२०)
एलरोई -सर्वदर्शी ईश्वर (उत्पत्ति १६:१३)
एलशादाई -सर्वशक्तिमान ईश्वर (उत्पत्ति १७:१)
एलओलाम -सनातन परमेश्वर (यशायाह ४०:२८)
यहोवा -प्रभु "मैं हूँ," जिसका अर्थ है अनन्त स्वयं उत्पन्न होने वाला (निर्गमन ३:१३,१४)
अब हम परमेश्वर की और विशेषताओं का निरीक्षण करना जारी रखेंगे ; परमेश्वर सनातन है, जिसका अर्थ है कि उसका कोई आरंभ नहीं था तथा उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होगा । वह अमर है, वह अंतहीन है (व्यवस्थाविवरण ३३:२७; भजन संहिता ९०:२; १तिमुथियुस १:१७) । परमेश्वर अपरिवर्तनीय है, अर्थात वह कभी बदलता नहीं; इसका मतलब है कि परमेश्वर पूर्ण रूप से विश्वसनीय तथा भरोसेमंद है (मलाकी ३:६; गिनती २३:१९; भजन संहिता १०२:२६-२७) । परमेश्वर अतुलनात्मक है, अर्थात कार्यों तथा अस्तित्व में उस जैसा और कोई नहीं; वह अतुल्य तथा सिद्ध है (२शमूएल ७:२२; भजन संहिता ८६:८; यशायाह ४०:२५; मत्ती ५:४८) । परमेश्वर अबोधगम्य है, अर्थात अगम्य, अथाह है (यशायाह ४०:२८; भजन संहिता १४५:३; रोमियो ११:३३, ३४)
परमेश्वर न्यायी है, अर्थात वो व्यक्तियों के विषय में कोई पक्षपात नहीं करता (व्यवस्थाविवरण ३२:४; भजन संहिता १८:३०) । परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, अर्थात उसके पास सारी शक्तियॉ है, वो कुछ भी कर सकता है जिससे उसे प्रसन्नता होती है, परन्तु उसके कार्य उसके चरित्र के अनुरूप होते हैं (प्रकाशित वाक्य १९:६; यिर्मयाह ३७:१७, २७) । परमेश्वर सर्वव्यापी है, अर्थात वो हर समय, हर जगह उपस्थित रहता है; इसका अर्थ यह नहीं है कि परमेश्वर सब कुछ है (भजन संहिता १३९:७-१३; यिर्मयाह २३:२३) । परमेश्वर सर्वज्ञ है, अर्थात उसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान रहता है, उसे सब ज्ञान रहता है, यहाँ तक की हम किसी भी देय समय पर क्या सोच रहें हैं, उसे सब ज्ञान है तथा उसका न्याय निष्पक्ष होगा (भजन संहिता १३९:१-५; नीतिवचन ५:२१) ।
परमेश्वर एक है, इसका केवल यह ही मतलब नहीं कि कोई दूसरा नहीं है, परन्तु यह भी है कि एक वो ही है जो हमारे मनों (हृदयों) की गहरी से गहरी इच्छाओं तथा लालसाओं को पूरा करता है, तथा केवल वो ही हमारी आराधना तथा श्रद्धा का अधिकारी है (व्यवस्थाविवरण ६:४) । परमेश्वर धर्मी है, अर्थात परमेश्वर गलत कार्यों को अनदेखा कभी नहीं कर सकता ; उसकी धार्मिकता तथा न्याय के कारण ही हमारे पापों की क्षमा के लिए, यीशु को परमेश्वर के न्याय का अनुभव करना पड़ा जब हमारे पाप उस पर रख दिए गए थे (निर्गमन ९:२७; मत्ती २७:४५-४६; रोमियो ३:२१-२६)
परमेश्वर संप्रभु है, अर्थात वो सर्वोच्च है, राजाओं का राजा, उसकी सारी सृष्टि मिलकर भी, चाहे जानबूझकर या अनजाने में, उसके उद्देश्यों को विफल नहीं कर सकती (भजन संहिता ९३:१; ९५:३; यिर्मयाह २३:२०) । परमेश्वर आत्मा है, अर्थात वह अदृश्य है (यूहन्ना १:१८;४:२४) । परमेश्वर त्रिएकत्व है, अर्थात तीन व्यक्तियों का संग्रह, साररूप में समान, शक्ति तथा महिमा में बराबर । ध्यान दें कि धर्मशास्त्र का पहला अनुच्छेद प्रमाण देता है कि 'नाम' एकवचन है, फिर भी वो तीन विभिन्न चरित्रों का उल्लेख करता है- "पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा" (मत्ती २८:१९; मरकुस १:९-११) परमेश्वर सत्य है, अर्थात वह उस अनुरूपता में हैं, जो कुछ वो है, वह सच्चरित्र रहेगा तथा झूठ नहीं बोल सकता (भजन संहिता ११७:२; १शमूएल १५:२९)
परमेश्वर पवित्र है, अर्थात वो हर प्रकार के नैतिक अपवित्रीकरण से अलग है तथा उसका विरोधी है । परमेश्वर सारी बुराईयों को देखता है और वो उस क्रोधित करती है; धर्मशास्त्र में पवित्रता के साथ आग का अकसर उल्लेख किया गया है । परमेश्वर के बारे में आग निगलने का उल्लेख है (यशायायह ६:३; हबवकूक १:१३; निर्गमन ३:२; ४:५; इब्रानियों १२:२९) । परमेश्वर अनुग्रहकारी है-इसमें उसकी अच्छाई, भलाई, दयालुता तथा प्रेम शामिल है-वह शब्द जिनमें उसकी अच्छाई के अर्थ की तात्पर्यता दिखाई देती है । अगर परमेश्वर का अनुग्रह ना होता तो ऐसा प्रतीत होता कि उसकी अन्य विशेषतायें हमें उससे अलग कर देंगी। धन्यवाद स्वरूप ऐसा नहीं है, क्योंकि वो हममें से हर एक को व्यक्तिगत रूप से जानने की इच्छा रखता है (निर्गमन ३४:६; भजन संहिता ३१:१९; १पतरस १:३; यूहन्ना ३:१६; यूहन्ना १७:३) । चुकिं ईश्वर एक असीम ब्रह्म है, कोई भी मनुष्य द्वारा इसकी खोज ईश्वर की तरह ही निराकार होगी। ईश्वर के वचन के द्वारा ही हम ईश्वर के स्वरूप को पहचान सकते हैं। शुभेच्छा यही है कि हम उनकी खोज में अनवरत बने रहें। (जिर्मयाह २९:१३)"
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परमेश्वर का सदगुण क्या हैं? परमेश्वर कैसा है?
क्या यीशु परमेश्वर है? क्या यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया है?
प्रश्न: क्या यीशु परमेश्वर है? क्या यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया है?
उत्तर: बाइबल में यीशु के बारे में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि उसने यथार्थ रूप से ये शब्द कहें, "मैं परमेश्वर हूँ ।" हाँलाकि इसका मतलब यह नहीं कि उसने यह ऐलान नहीं करा कि वो परमेश्वर है । उदाहरण के रूप में यूहन्ना १०:३० में यीशु के शब्दों को लें, "मैं और पिता एक है ।" पहली दृष्टि में, यह परमेश्वर होने के दावे के रूप में प्रतीत नहीं होता । कैसे भी, उसके कथन पर यहूदियों की प्रतिक्रिया को देखें, "यहूदियों ने उसको उत्तर दिया , कि भले काम के लिए हम तुझे पत्थर से नहीं मारते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा करने के कारण, और इसलिए कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बताता है" (यूहन्ना १०:३३) ।
यहूदियों ने यीशु के कथन को परमेश्वर होने का दावा समझा था । निम्नलिखित पदों में यीशु ने यहूदियों को सुधारने के लिए कभी भी यह नहीं कहा, "मैंने परमेश्वर होने का दावा नहीं किया था ।" यह संकेत देता है कि यीशु यह घोषणा करते हुए कि "मैं और पिता एक हैं" (यूहन्ना १०:३०) सच मे ही कह रहा था कि वो परमेश्वर है । यूहन्ना ८:५८ एक अन्य उदाहरण है । यीशु ने कहा, "मैं तुम से सच-सच कहता हूँ; कि पहले इसके कि इब्राहिम उत्पन्न हुआ मैं हूँ ! फिर से, प्रतिक्रिया में यहूदियों ने पत्थर उठाकर यीशु को मारना चाहा (यूहन्ना ८:५९) । यहूदी यीशु को क्यूँ पत्थर मारना चाहते अगर उसने कुछ ऐसा नहीं कहा था जिसे वो परमेश्वर कि निन्दा करना समझ रहे थे, अर्थात, परमेश्वर होने का दावा?
यूहन्ना १:१ कहता है "वचन परमेश्वर था ।" यूहन्ना १:१४ कहता है, "वचन देहधारी हुआ ।" यह स्पष्टता से संकेत करता है कि यीशु ही देह रूप में परमेश्वर है । प्रेरितों के काम २०:२८ हमें बताते हैं, " ... परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली करो, जिसे उस ने अपने लहू से मोल लिया है ।" कलीसिया को किसने अपने लहू से मोल लिया था? यीशु मसीह । प्रेरितों के काम २०:२८ कहता है कि परमेश्वर ने कलीसिया को अपने लहू से मोल लिया । इसलिए यीशु परमेश्वर है ।
थोमा, जो कि चेला था, यीशु के संबंध में कहता है, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर" (यूहन्ना २०:२८) । यीशु ने उसे नहीं सुधारा । तीतुस २:१३ हमें हमारे परमेश्वर तथा उद्धारकर्ता-यीशु मसीह के आने की प्रतीक्षा करने के लिए प्रोत्साहित करता है (२पतरस १:१ भी देखें) । इब्रानियों १:८ में पिता यीशु के बारे में कहता है, "परन्तु पुत्र से कहता है, कि हे परमेश्वर, तेरा सिंहासन युगानुयुग रहेगा, तेरे राज्य का राजदण्ड न्याय का राजदण्ड है ।"
प्रकाशित वाक्य में, एक र्स्वगदूत प्रेरित युहन्ना को निर्देश देता है कि वह केवल परमेश्वर ही को दण्डवत करे (प्रकाशितवाक्य १९:१०) । बाइबल में कई बार यीशु को दण्डवत किया गया है (मत्ती २:११;१ ४:३३; २८:९, १७; लूका २४:५२; यूहन्ना ९:३८) । वो लोगों को उसे दण्डवत करने से कभी नहीं डांटता । अगर यीशु परमेश्वर नहीं था, तो उसे लोगों से कहना चाहिये था कि उसे दण्डवत ना करें, जैसा कि प्रकाशित वाक्य में स्वर्गदूत ने किया था । बाइबल के कई अन्य पद तथा अनुच्छेद है जो यीशु की प्रभुता सिद्ध करते हैं ।
सबसे महत्वपूर्ण कारण कि यीशु को परमेश्वर होना था वो यह है कि अगर वो परमेश्वर नहीं है, तो उसकी मृत्यु पूरे संसार के पापों के जुर्माने की कीमत अदा करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती थी (१यूहन्ना २:२) केवल परमेश्वर ही ऐसा असीम जुर्माना भर सकता है । केवल परमेश्वर ही संसार के पाप अपने ऊपर ले सकता है (२कुरिन्थियों ५:२१), मर सकता है, तथा पुर्नजीवित हो सकता है-पाप तथा मृत्यु पर अपनी विजय प्रमाणित करते हुए ।
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क्या यीशु परमेश्वर है? क्या यीशु ने कभी परमेश्वर होने का दावा किया है?
क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?
प्रश्न: क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?
उत्तर: इस प्रश्न का हमारा उत्तर केवल यह ही सुनिश्चित नहीं करेगा कि हम अपने जीवन में बाइबल और उसकी भूमिका को किस दृष्टि से देखते हैं, परन्तु अंततः वो हमारे उपर एक अनन्त प्रभाव भी डालेगा । अगर बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है, तो हमें उसे संजोए रखना चाहिए, पढ़ना चाहिए, पालन करना चाहिए तथा अंततः उसपर भरोसा करना चाहिये । अगर बाइबल परमेश्वर का वचन है तो उसको खारिज कर देना परमेश्वर को खारिज कर देना है ।
यह वास्तविकता कि परमेश्वर ने हमें बाइबल दी, हमारे प्रति उसके प्रेम की गवाही तथा उदाहरण है । "प्रकटीकरण" (प्रकाशितवाक्य) शब्द का सरल अर्थ यह है कि परमेश्वर ने मानव जाति को यह प्रकट कराया कि वह कैसा है तथा हम कैसे उसके साथ सही संबंध रख सकते हैं । यह वो बातें हैं जो हमें नहीं मालूम चलती अगर परमेश्वर दैवी विधि से हम पर बाइबल में प्रत्यक्ष नहीं करता । हालांकि बाइबल में स्वयं ईश्वर का प्रकटीकरण प्रगतिशील रूप से लगभग १५०० वर्ष से अधिक दिया गया; उसमें वो सारी बातें रहीं जिनकी परमेश्वर के बारे में जानने के लिए मनुष्य को आवश्यकता थी, जिससे कि वो उसके साथ सही संबंध बना सके । अगर बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है, तो फिर वो विश्वास, धार्मिक प्रथाओं तथा नैतिकताओं के सभी मामलों की एक निर्णायक अधिकारी हैं ।
हमें स्वयं से यह प्रश्न जरूर पूछना चाहिए कि हम कैसे जान सकते हैं कि बाइबल परमेश्वर का वचन है ना कि केवल एक अच्छी पुस्तक? बाइबल में ऐसी क्या विशेषता है जो उसे अब तक कि लिखी सारी धार्मिक पुस्तकों से अलग करती है? क्या कोई प्रमाण है कि सच में बाइबल परमेश्वर का वचन है? यह उस प्रकार के प्रश्न हैं जिनकी ओर देखना चाहिये अगर हम बाइबल के दावा को गंभीरतापूर्वक निरीक्षण करना चाहते हैं कि बाइबल ही परमेश्वर का सत्य वचन है, ईश्वरीय शक्ति से प्रेरित, तथा विश्वास और संस्कार के संबंध में पूर्ण रूप से पर्याप्त ।
इस वास्तविकता के विषय में कोई संदेह नहीं हो सकता कि बाइबल परमेश्वर ही का वचन होने का दावा करती है । यह स्पष्ट रूप से इन पदों में दिखाई देता है जैसे २तिमुथियुस ३:१५-१७ जो कहता है, "… और बालकपन से पवित्र शास्त्र तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिए बुद्धिमान बना सकता है । हर एक पवित्रशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिए लाभदायक है । ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिए तत्पर हो जाए ।"
इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमें दोनों, भीतरी तथा बाहरी गवाहियों की ओर निश्चित रूप से देखना चाहिये कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । अन्दरूनी गवाहियाँ स्वयं बाइबल के अंदर की वो बातें हैं जो उसके ईश्वरीय मूल की गवाही देती है । बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है के लिए पहली भीतरी गवाहियों में से एक उसके एकत्व में देखा जाता है । हाँलाकि यह वास्तव में छियासठ पुस्तकें हैं, जो तीन महाद्वीपों में लिखीं हैं, तीन भिन्न भाषाओं में, लगभग १५०० वर्षों से अधिक तथा ४० लेखकों से अधिक के द्वारा (जो कि जीवन के विभिन्न पेशों में से आए थे), लेकिन बाइबल आरंभ से समाप्ति तक बिना किसी विरोध के एक सी ही बनी रही है । यह एकत्व और अन्य पुस्तकों से बेजोड़ है तथा शब्दों के ईश्वरीय मूल का प्रमाण है, कि परमेश्वर ने इन्सानों को इस प्रकार से अभिप्रेरित करा कि उन्होंने उसके ही शब्द अभिलिखित किये ।
एक अन्य भीतरी गवाही जो संकेत देती है कि सच में बाइबल परमेश्वर का वचन है उन विस्तृत भविष्यवाणियों में देखा जाता है जो कि उसके पन्नों के भीतर हैं । बाइबल में सैकड़ों भविष्यवाणियाँ हैं जो कि इज़रायल समेत एकल देशों के भविष्य, कुछ नगरों के भविष्य, मानव-जाति के भविष्य, और उसके आने के लिये जो मसीहा होगा, केवल इज़राइल का ही उद्वारकर्ता नहीं अपितु उन सब का जो उसपर विश्वास करते हैं, से संबंधित है । अन्य धार्मिक पुस्तकों की भविष्यवाणियों से या जो नास्त्रेदेमुस के द्वारा की गईं, उनके विपरीत, बाइबल की भविष्यवाणियाँ अत्यंत विस्तृत है तथा कभी गलत (असत्य) नहीं पाई गई। केवल पुराने नियम में ही यीशु मसीह से संबंधित तीन सौ से भी अधिक भविष्यवाणियॉ हैं । ना केवल इस बात का पूर्वकथन किया गया था कि वो कहां जन्मेगा तथा किस परिवार से आयेगा, परन्तु यह भी कि वह कैसे मरेगा तथा तीसरे दिन फिर से जी उठेगा । बाइबल में पूरी हुई भविष्यवाणियों को ईश्वरीय मूल के द्वारा समझाने के अतिरिक्त और कोई तार्किक तरीका है ही नहीं । किसी अन्य धार्मिक पुस्तक में इस सीमा या प्रकार की भविष्यवाणी नहीं है जो कि बाइबल में हैं ।
बाइबल के ईश्वरीय मूल का होने की एक तीसरी गवाही उसके बेजोड़ अधिकार तथा शक्ति में है । हाँलाकि, यह गवाही पहली दो भीतरी गवाहियों से अधिक व्यक्तिगत है, परन्तु यह बाइबल के ईश्वरीय मूल के होने की शक्तिशाली प्रमाणों से कम नहीं है । बाइबल में एक बेजोड़ अधिकार (क्षमता) है जो अब तक लिखी गई किसी भी पुस्तक में नहीं है । इस अधिकार तथा शक्ति को सर्वोत्तम रूप में इस प्रकार देखा जाता है कि किस तरह से बाइबल का अध्ययन करने से अनगिनत लोग परिवर्तित हुए । नशीली दवाओं के व्यसनी इसके द्वारा चंगे हो गए, समलैंगिक व्यक्ति इसके द्वारा मुक्त हुए, बहिष्कृत तथा कंगाल लोग इसके द्वारा रूपांतरित किये गए, कड़े अपराधी इसके द्वारा सुधारे गए, पापी इसके द्वारा फटकारे गए, तथा घृणा इसको पढ़ने के द्वारा प्रेम में बदल गई । बाइबल में निश्चय ही एक ओजस्वी तथा रूपांतरण की शक्ति है जो कि केवल तब ही संभव है क्योंकि यह सच में परमेश्वर का वचन है ।
बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है कि भीतरी गवाहियों के अतिरिक्त बाह्य गवाहियाँ भी है जो इस बात का संकेत देती है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । उन में से एक गवाही बाइबल की ऐतिहासिकता है । क्योंकि बाइबल ऐतिहासिक घटनाओं का ब्योरा देती है इसलिए उसकी सत्यता तथा यर्थातता किसी अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों की तरह सत्यापन के अधीन है । पुरातात्विक प्रमाणों तथा अन्य लिखित दस्तावेज़ों, दोनों के द्वारा, बाइबल के ऐतिहासिक वृतांतों को समय-समय पर सत्य तथा सही होने के लिए प्रमाणित किया जाता रहा है । सत्य तो यह है कि बाइबल के समर्थन में सारे पुरातत्विक तथा हस्तलिखित प्रमाणों ने उसे पुरातन संसार की सर्वश्रेष्ठ दस्तावेजों से सिद्ध करी हुई पुस्तक बना दिया है । यह सत्य कि बाइबल ऐतिहासिक रूप से सत्यापित घटनाओं का सही तथा सत्यता से ब्यौरा रखती है उसकी सत्यता का एक बड़ा संकेत है जब धार्मिक विषयो तथा सिद्धांतों पर विचार किया जाता है तथा उसके दावे को प्रमाणित करने में सहायक है कि बाइबल ही परमेश्वर का वचन है ।
अन्य बाह्य गवाहियों कि बाइबल ही सच में परमेश्वर का वचन है, वो है उसके मानव लेखकों की निष्ठा । जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, परमेश्वर ने हम तक अपने वचनों को अभिलिखित करने के लिए जीवन के विभिन्न पेशों से आये हुए मनुष्यों का उपयोग किया । इन मनुष्यों की जीवनियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस बात पर विश्वास करने का कोई भी ऐसा अच्छा कारण नहीं है कि वो ईमानदार तथा निष्ठावान नहीं थे । उनकी जीवनियों का निरीक्षण करते हुए तथा वो वास्तविकता कि जिस लक्ष्य पर वो भरोसा करते थे उसके लिए जान देने को भी तत्पर थे (प्रायः यंत्रणादायक मृत्यु), यह जल्दी ही स्पष्ट हो जाता है ये साधारण मगर ईमानदार मनुष्य सच में विश्वास करते थे कि परमेश्वर ने उनसे बातें करी है । जिन मनुष्यों ने नया नियम लिखा तथा कई अन्य सैकड़ों विश्वासी (१कुरिन्थियों १५:६) अपने संदेश के सत्य को जानते थे क्योंकि उन्होने यीशु मसीह को देखा तथा समय व्यतीत किया उसके मुर्दों में से जी उठने के पश्चात । जी उठे हुए मसीह को देखने के रूपांतरण का इन मनुष्यों पर जबरदस्त असर पड़ा । वे डर कर छिपने की जगह उस संदेश के लिए मरने को तैयार थे जो परमेश्वर ने उनपर प्रकट किया । उनके जीवन तथा मृत्यु इस सत्य को प्रमाणित करते है कि बाइबल सच में ही परमेश्वर का वचन है ।
एक अंतिम बाह्य गवाहियों कि बाइबल ही सच में परमेश्वर का वचन है वो है बाइबल का नष्ट ना हो पाना । उसके महत्व तथा पूर्णतया परमेश्वर के वचन के दावे के कारण, बाइबल ने इतिहास में किसी अन्य पुस्तक से बहुत अधिक बुरे आक्रमण तथा उसको नष्ट करने के प्रयास झेलें हैं । आरंभिक काल के रोमी सम्राटों जैसे डायोसीश्यिन से लेकर साम्यवादी तानाशाहों तथा आज के आधुनिक समय के नास्तिकों और अज्ञेयवादियों तक, बाइबल ने अपने सभी अक्रमणकारियों को झेला है तथा टिकने नहीं दिया तथा आज भी वो सारे संसार में सर्वाधिक प्रकाशित होने वाली पुस्तक है ।
सदा से, संशयवादियों ने बाइबल को काल्पनिक रूप में माना है, परन्तु पुरातत्व ने उसे ऐतिहासिक रूप में स्थापित किया है । विरोधियों ने उसकी शिक्षाओं को पुरातन तथा आदिकालीन कहकर आक्रमण किया, परन्तु उसकी नैतिक तथा विधिक धारणाएँ तथा शिक्षाओं ने सारे संसार में समाजों तथा संस्कृतियों पर अपना सकारात्मक प्रभाव छोड़ा है । विज्ञान, मनोविज्ञान तथा राजनीतिक आंदोलनों के द्वारा आज भी उसपर आक्रमण जारी है परन्तु अभी तक वो वैसी ही प्रामाणिक तथा प्रासंगिक जैसे कि पहले जब वो लिखी गई थी । यह वो पुस्तक है जिसने बीते २००० वर्षों में अनगिनत जिंदगियों तथा संस्कृतियों को परिवर्तित कर डाला है । इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कैसे इसके विरोधी इसपर आक्रमण करने, इसको नष्ट करने, या इसको कलंकित करने का प्रयास करते हैं, परन्तु इन आक्रमणों के बाद भी बाइबल उतनी शक्तिशाली, उतनी ही सत्य तथा उतनी ही प्रासंगिक है जैसे वो पहले थी । उसकी शुद्धता जो आज तक सुरक्षित रखी गई है, उसको बदनाम करने, उसपर आक्रमण करने या उसको बरबाद करने के प्रयासों के बावजूद भी, इस सत्य का स्पष्ट प्रमाण है कि बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है । हमें इस बात पर चकित नहीं होना चाहिये कि चाहें कैसे भी बाइबल पर आक्रमण किया गया हो, वो हमेशा अपरिवर्तित तथा सही-सलामत निकल आती है । आखिरकार यीशु ने कहा था, "आकाश और पृथ्वी टल जायेंगे, पर मेरी बातें कभी न टलेंगी" (मरकुस १३:३१) इस प्रमाण को देखने के बाद कोई भी संदेह के कह सकता है कि, "हाँ बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है ।"
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क्या बाइबल सच में परमेश्वर का वचन है?
क्रिश्चियन धर्म क्या है तथा क्रिश्चियन क्या विश्वास करते हैं?
प्रश्न: क्रिश्चियन धर्म क्या है तथा क्रिश्चियन क्या विश्वास करते हैं?
उत्तर: १कुरिन्थियों १५:१-४ कहता है, "हे भाईयों में तुम्हे वही सुसमाचार बताता हूँ, जो पहले सुना चुका हूँ, जिसे तुमने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी है । उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैंने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ है। इसी कारण सब से पहले मैंने तुम्हें वही बात पहुँचा दी, जो मुझे पहुँची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिए मर गया । और गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा ।"
संक्षेप में, यह क्रिश्चियन धर्म का विश्वास है । क्रिश्चियन धर्म और सारे विश्वासों में सबसे अद्वितीय है । क्रिश्चियन धर्म एक संबंध के विषय में अधिक है, बजाए धार्मिक प्रथा के । "करने या ना करने" की क्रियाओं की सूची से चिपके रहने की बजाए एक क्रिश्चियन का उद्देश्य परमपिता परमेश्वर के साथ नज़दीकी से चलना है । यीशु मसीह के कार्यों के कारण तथा पवित्र आत्मा के द्वारा क्रिश्चियन के जीवन के संचालन के कारण यह संबंध संभव हुआ ।
क्रिश्चियन यह विश्वास करते हैं कि बाइबल प्रेरित किया हुआ निर्दोष रूप में परमेश्वर का वचन है, तथा उसकी शिक्षायें निर्णायक है (२तिमुथियुस ३:१६; २पतरस १:२०-२१) । क्रिश्चियन यह विश्वास करते हैं कि एक परमेश्वर तीन व्यक्तियों के अस्तित्व में है, पिता, पुत्र (यीशु मसीह) तथा पवित्र आत्मा ।
क्रिश्चियन विश्वास करते हैं कि मानव जाति विशेष रूप से परमेश्वर के साथ संबंध रखने के लिए रची गयी थी, परन्तु पाप सारे मनुष्यों को परमेश्वर से पृथक कर देता है (रोमियो ५:१२, रोमियो ३:२३) । क्रिश्चियन धर्म यह सिखाता है कि यीशु मसीह इस धरती पर विचरण किया, पूर्ण परमेश्वर के रूप में, तथा फिर भी पूर्ण मनुष्य के रूप में (फिलिपियों २:६-११), और क्रूस पर मरा भी । क्रिश्चियन यह मानते है कि क्राइस्ट के सलीब पर मरने के बाद, क्राइस्ट को दफना दिया गया। वह फिर से जी उठा और अब वह अपने अनुयायिओं की मध्यस्थता करने के लिए परम पिता के छ्त्रछाया में निवास करता है (इब्रानियों ७:२५) । क्रिश्चियन धर्म यह घोषणा करता है कि यीशु की सलीब पर मारे जाने से सारे मनुष्यों के पापों का कर्ज चुकाने के लिए पूर्ण कीमत के रूप में पर्याप्त है तथा यह ही है जो परमेश्वर और मनुष्य के बीच विलगित संबंध को पुन:स्थापित करता है (इब्रानियों ९:११-१४; इब्रानियों १०:१०; रोमियो ६:२३; रोमियो ५:८)
उद्धार पाने के लिए एक मनुष्य को केवल पूर्ण रूप से अपना विश्वास क्रूस पर यीशु के पूर्ण किये हुए कार्य पर रखना चाहिये । अगर कोई यह विश्वास करता है कि यीशु उसकी जगह मरा तथा उसके स्वयं के पापों की कीमत चुकाई, तथा फिर जीवित हुआ, तो उस व्यक्ति को उद्धार मिल गया । ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे कोई करके उद्धार प्राप्त कर सके । कोई भी "इतना धार्मिक" नहीं हो सकता जो स्वयं के ऊपर परमेश्वर को प्रसन्न कर सके, क्योंकि हम सब पापी हैं (यशायाह ६४:६-७, शायाह ५३:६) । दूसरे, और अधिक कुछ नहीं किया जाना है, क्योंकि यीशु सारा कार्य कर चुका है ! जब वो क्रूस पर था, यीशु ने कहा, "पूर्ण हो चुका है (यूहन्ना १९:३०)
ठीक वैसे ही कोई भी मोक्ष पाने के लिए कुछ नहीं कर सकता, अगर किसी ने अपने विश्वास को सलीब पर क्राइस्ट के कार्य पर स्थापित करता है, ऐसा भी कुछ भी करने के लिए नहीं है क्राइस्ट के द्वारा किये गये कार्य के समाप्ति अथवा पूर्णता से मोक्ष नहीं प्राप्त होगा। मोक्ष प्राप्तकर्ता के उपर निर्भर नहीं करता है। यूहन्ना १०:२७-२९ वर्णन करता है है, "मेरी भेड़े मेरी आज्ञा को मानती हैं, और मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरा अनुसरण करते हैं । और मैं उन्हें शाश्वत जीवन देता हूँ, और वे कभी नाश नही होंगी, और कोई मुझसे छीन नही पायेगा । मेरे पिता, जिस ने (उन्हें) मुझे दिया है, सब से महान है. और कोई उन्हें पिता के हाथ से ले नहीं सकता ।"
कुछ लोग यह मान सकते है कि,"..ये सुखद अनुभव है कि मैं संरक्षित हो गया, मैं अब इच्छानुसार कार्य कर सकता हूँ तथा मेरा मोक्ष भी मेरे साथ रहेगा।" परन्तु मोक्ष अपने इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं है। मोक्ष का तात्पर्य पुराने सारे किये गये दुष्कृत कार्यों से मुक्ति तथा ईश्वर के साथ उचित संबंध स्थापित करने की चेष्टा से है। जहाँ पहले हम पाप के दासत्व में थे वहीं अब हम क्राइस्ट के शरण में है। (Romans 6:15-22) जब तक अनुयायी इस पृथ्वी पर दुष्कृत्यों के साथ संपृक्त रहेंगे तब तक पाप त्यागने के लिए अनवरत संघर्ष चलता रहेगा। यद्यपि क्रिश्चियन इस पाप से ईश्वर के वचनों का अध्ययन तथा अपने जीवन में व्यवहार कर मुक्ति पा सकता है। एवं आत्मा पवित्र आत्मा के द्वारा नियंत्रित होती है जो कि आत्मा के प्रभाव के अधीन्स्थ रहते हुए जीवात्मा के शक्ति के द्वारा तथा दैनिक परिस्थितियों के अनुसार ईश्वर के कृपा से परिचालित होती है।
इसलिए, यद्यपि कई धर्म यह माँग करते हैं कि एक व्यक्ति को कुछ निश्चित बातें करनी चाहिये या कुछ निश्चित बातें नहीं करनी चाहिये, क्रिश्चियन धर्म परमेश्वर के साथ संबंध रखना है । क्रिश्चियन धर्म इस बात पर विश्वास करना है कि यीशु मसीह हमारे अपने पापों की कीमत चुकाने के लिए क्रूस पर मरा, तथा फिर से जी उठा । हमारे पाप का उधार चुका दिया गया है तथा हम परमेश्वर के साथ सहभागिता कर सकते हैं । आप अपने पापी स्वभाव को नियंत्रित कर सकते हैं तथा भाईचारे और आज्ञाकारिता में परमेश्वर के साथ चल सकते हैं । यह असली बाइबल क्रिश्चियन धर्म है ।
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क्रिश्चियन धर्म क्या है तथा क्रिश्चियन क्या विश्वास करते हैं?
क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?
प्रश्न: क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?
उत्तर: हम जानते हैं कि परमेश्वर वास्तविक है क्योंकि उसने अपने आपको हम पर तीन तरीकों से प्रकट किया है : सृष्टि में, अपने वचन में, तथा अपने पुत्र, यीशु मसीह में ।
परमेश्वर के अस्तित्व का सर्वाधिक मौलिक प्रमाण साधारणतयाः वो है जो उसने बनाया है । "क्योंकि उसके अनदेखे गुण, अर्थात उसकी सनातन सामथ, और परमेश्वरत्व जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं, यहाँ तक कि वे (अविश्वासी) निरूत्तर है" (रोमियों १:२०)। "आकाश ईश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है/और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है" (भजन संहिता १९:१)
अगर मुझे मैदान के बीच में एक घड़ी पड़ी हुई मिल जाये, तो मैं यह नहीं मान लूँगा कि वो सहसा ही प्रकट हो गई, या वो हमेशा से वहॉ थी । घड़ी के स्वरूप पर आधारित, आप मान लें कि इस एक डिजाइनर था। लेकिन इससे कई अधिक डिजाइन तथा कार्यशुद्धता हमारे आसपास की दुनिया में है। हमारे समय का माप कलाई पर बंधे घड़ी पर आधारित नहीं है, बल्कि ईश्वर के हाथों में है, पृथ्वी का नियमित परिभ्रमण(सीसियम का रेडियोधर्मी गुण – 133 अणु) । ब्रहमाण्ड महान खाका (डिज़ाइन) । प्रदर्शित करता है, तथा यह बात महान खाकाकार (डिज़ाईनर) को सिद्ध करती है।
अगर मुझे कोई सांकेतिक भाषा का संदेश मिलता है, तो मैं एक कूट विशेषज्ञ के पास जाऊँगा कि वो उन संकेतों को खोले । मैं यह मानूँगा कि किसी बुद्धिमानी व्यक्ति ने संदेश भेजा है; वो जिसने उस संकेत की रचना किया है । डी एन ए 'संकेत' (कोड) कितना पेचीदा है हम अपने शरीर के हर कोशाणु में धारण किये रहते हैं? क्या डी एन ए के पेचीदेपन तथा उद्देश्य संकेत (कोड) के बुद्धिमान लेखक को सिद्ध नहीं करते?
परमेश्वर ने ना केवल एक जटिल तथा उत्तम सामंजस्य का भौतिक संसार बनाया है, उसने मनुष्यों के हृदय में अनन्त-काल का ज्ञान भी उत्पन्न किया है (सभोपदेशक ३:११) । मानव-जाति में एक जन्माजात बोध है कि जीवन में उससे भी अधिक है जो आँख द्वारा देखा जाता है, कि इन सांसारिक नियमो से ऊँचा भी कोई अस्तित्व है । हमारा अनन्तकाल का ज्ञान अपने आपको कम से कम दो तरह से प्रकट करता है : नियम बनाना तथा उपासना । प्रत्येक सभ्यता ने पूरे इतिहास के दौरान कुछ नैतिक नियम कानून संरक्षित किया है, जो कि आश्चर्यजनक रूप से संस्कृति दर संस्कृति समान रहा है। उदाहरण के लिए, प्रेम का मानक सर्वत्र सम्मानित है, जबकि झूठ की क्रिया सर्वत्र दोषी पाई जाती है । सही तथा गलत कि यह सामूहिक नैतिकता-यह सार्वभौमिक समझ एक सर्वोच्च नैतिकता के अस्तित्व की ओर संकेत करता है जिसने हमें ऐसा अंतःकरण दिया ।
इसी तरह से, सारे संसार के लोगों नें, चाहे जो भी संस्कृति हो, उपासना की एक पद्धति विकसित की है । उपासना का उद्देश्य अलग हो सकता है, परन्तु एक "महान शक्ति" का अहसास मानव होने का एक अकाट्य भाग है। उपासना की हमारी प्रवृत्ति इस सत्य से मेल खाती है कि परमेश्वर ने हमें "अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया" (उत्पत्ति १:२७) । परमेश्वर ने हम पर अपने आप को अपने वचन के द्वारा भी प्रकट करा है । धर्मशास्त्र में आरंभ से अंत तक, परमेश्वर के अस्तित्व से एक स्वयं-प्रमाणित सत्य के रूप में व्यवहार किया गया है (उत्पत्ति १:१; निर्गमन ३:१४) । जब बेंजामिन फ्रैंकलिन ने अपनी आत्मकथा लिखी, उसने अपने स्वयं के अस्तित्व को प्रमाणित करने के प्रयास में समय बर्बाद नहीं किया । उसी प्रकार से, परमेश्वर अपनी पुस्तक में उसका अस्तित्व प्रमाणित करने में अधिक समय व्यतीत नहीं करता । बाइबल का जीवन-परिवर्तित करने का स्वभाव, उसकी निष्ठा, तथा वो चमत्कार जो उसके लेखन के साथ-साथ घटे एक नज़दीकी दृष्टि के अधिकार के लिए पर्यात होने चाहिये ।
तीसरे तरीके से जिसमें परमेश्वर ने स्वयं को प्रकट किया वो है, अपने पुत्र यीशु मसीह के द्वारा (यूहन्ना १४:६-११) । "आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था और वचन परमेश्वर था और वचन परमेश्वर था ... और वचन देहधारी हुआ, और हमारे बीच में डेरा किया" (यूहन्ना १:१; १४) । यीशु मसीह में, "ईश्वरत्व की सारी परिपूर्णता संदेह वास करती है" (कुलुस्सियों २:९) ।
यीशु के विस्मयकारी जीवन में, उसने संपूर्ण पुराने नियम के कानून को पूर्णता से माना तथा मसीह के बारे में की गई भविष्यवाणियों को पूरा किया (मत्ती ५:१७) । अपने संदेश की प्रमाणिकता सिद्ध करने तथा अपने प्रभु की गवाही के लिए उसने दया के अनगिनत कार्य तथा सार्वजनिक चमत्कार किये (यूहन्ना २१:२४-२५) । फिर, अपने सलीब पर चढ़ाये जाने के तीन दिन बाद, वो मुर्दों में से जी उठा, एक वास्तविकता जिसकी अभिपुष्टि सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शियों ने की; (१कुरिन्थियों १५:६) । ऐतिहासिक अभिलेख "प्रमाण" से भरा पड़ा है कि यीशु कौन था । जैसा कि प्रेरित पौलुस ने कहा था, "यह घटना तो कोने में नहीं हुई" (पे्ररितों के काम २६:२६)
हमें अनुभूति है कि संशयवादी हमेशा रहेंगे जिनके पास परमेश्वर के विषय में अनेक स्वयं के विचार होंगे तथा गवाही को उसी के अनुसार पढ़ेगें । तथा कुछ ऐसे भी होंगे जिनको किसी भी तरह का प्रमाण संतुष्ट नहीं कर सकता (भजन संहिता १४:१) । यह केवल विश्वास के द्वारा आता है (इब्रानियों ११:६) ।
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क्या वास्तव में परमेश्वर है? मैं यह निश्चित रूप से कैसे जान सकता हूँ कि परमेश्वर वास्तविक है?
जीवन का अर्थ क्या है?
प्रश्न: जीवन का अर्थ क्या है?
उत्तर: जीवन का अर्थ क्या है? मैं जीवन में उद्देश्य, पूर्णता तथा संतुष्टि कैसे खोज सकता हूँ? क्या मुझमें किसी चिरस्थायी महत्व को पूरा करने की सामर्थ होगी? इतने सारे लोगों ने यह सोचना कभी नहीं छोड़ा की जीवन का अर्थ क्या है । वह वर्षों पीछे मुड़कर देखते हैं तथा आश्चर्य करते हैं कि उनके संबंधों में पृथकता क्यों आई तथा वो इतने खालीपन का अहसास क्यों करते हैं जबकि उन्होंने वो सब कुछ पा लिया जिसको पूरा करने के लिए वो निकले थे । एक बेसबाल खिलाड़ी जिसने कि बेसबाल में बहुत ख्याति पाई थी, से पूछा गया कि जब उसने शुरू में बेसबाल खेलना आरंभ किया था तो उसकी क्या इच्छा थी कि कोई उसे क्या सलाह देता । उसने उत्तर दिया, "मेरी इच्छा थी कि कोई मुझे बताता कि जब आप शिखर पर पहुँच जाते हैं, तो वहॉ पर कुछ नहीं होता।" कई उद्देश्य अपना खालीपन तब प्रकट करते हैं केवल जब कई वर्ष उनका पीछा करने में लग गए होते हैं ।
हमारे मानवतावादी समाज में, लोग कई उद्देश्यों का पीछा करते हैं, यह सोचकर कि उनमें अर्थ मिलेगा । इनमें से कुछ कार्यकलापों में सम्मिलित है : व्यापारिक सफलता, धन-संपत्ति, अच्छे संबंध, यौन-संबंध, मनोरंजन, दूसरों के प्रति भलाई, वगैरह । लोगों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जबकि उन्होंने धन-संपत्ति, संबंधों तथा आनंद के लक्ष्यों को पा लिया है, फिर भी उनके अन्दर एक गहरी शून्यता है-खालीपन का एक अहसास जिसे कोई वस्तु भरती हुई प्रतीत नहीं होती ।
बाइबल की पुस्तक सभोपदेशक के लेखक ने इस बात का एहसास किया जब उसने कहा, "व्यर्थ ही व्यर्थ, व्यर्थ ही व्यर्थ ! सब कुछ व्यर्थ हैं ।" इस लेखक के पास अथाह धन-संपत्ति थी, अपने या हमारे समय के किसी भी व्यक्ति से परेशान था, सैकड़ों स्त्रीयॉ थी, महल तथा बागीचे थे जो कि कई राज्यों की ईर्ष्या के कारण थे, सर्वोत्तम भोजन तथा मदिरा थी, तथा हर प्रकार का मनोरंजन उपलब्ध था । और फिर भी उसने यह निष्कर्ष निकाला "सूरज के नीचे" (ऐसा जीया हुआ जीवन जैसे कि जीवन में केवल यह ही हो जो हम आँखों से देख सकते है तथा इन्द्रियों से महसूस कर सकते हैं) व्यर्थ है ! ऐसी शून्यता क्यों है । क्योंकि परमेश्वर ने हमारी रचना आज और अभी का अनुभव करने के अतिरिक्त किसी और वस्तु के लिए करी थी । सुलेमान ने परमेश्वर के विषय में कहा, "उसने मनुष्यों के मनों में आदि-अनन्त काल का ज्ञान रखा …" अपने हृदयों में हम इस बात से अवगत हैं कि केवल "आज और अभी" ही सब कुछ नहीं है ।
उत्पत्ति में, बाइबल की पहली पुस्तक में हम पाते हैं कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया (उत्पत्ति १:२६) । इसका अर्थ है कि हम किसी और के बजाए परमेश्वर की तरह अधिक है (किसी भी अन्य जीवन के प्रकार से) हम यह भी पाते हैं कि मनुष्य जाति के पाप में पड़ने से पहले तथा पृथ्वी शापित होने से, निम्नलिखित बातें सत्य थी : (1) परमेश्वर ने मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी बनाया (उत्पत्ति २:१८-२५); (२) परमेश्वर ने मनुष्य को कार्य दिया (उत्पत्ति २:१५) (३) परमेश्वर ने मनुष्य के साथ मेल-जोल था (उत्पत्ति ३:८) (४) परमेश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर अधिकार दिया (उत्पत्ति १:२६) । इन विषयों की क्या विशेषता है? मेरा यह मानना है कि परमेश्वर ने हर एक से चाहा कि वो हमारे जीवन में पूर्णता लाये, परन्तु इनमें से हर एक (विशेषकर मनुष्य का परमेश्वर से मेल जोल) मनुष्य के पाप में पड़ने से विपरीत रूप में प्रभावित हुईं, पृथ्वी के ऊपर शाप का परिणाम बनते हुए (उत्पत्ति ३) ।
प्रकाशित वाक्य में जो बाइबल की अन्तिम पुस्तक है, कई अन्य अंतिम घटनाओं के अन्त में, परमेश्वर प्रकट करता है कि वो इस वर्तमान पृथ्वी और आकाश का जैसा कि हम उन्हें जानते हैं, सर्वनाश कर देगा, तथा एक नए आकाश और एक नई पृथ्वी का सृजन करेगा । उस समय वो उद्धार प्राप्त मानवजाति से पूर्ण मेल जोल बहाल करेगा । मानव जाति में से कुछ अयोग्य पाई गई और उन्हें आग की झील में डाल दिया गया (प्रकाशित वाक्य २०:११-१५) । और पाप का शाप जाता रहेगा : फिर और पाप, दुख बीमारी, मत्यु, दर्द, वगैरह नहीं रहेगें (प्रकाशित वाक्य २१:४) । तथा विश्वासी सब वस्तुओं के वारिस होंगे; परमेश्वर उनके साथ वास करेगा, तथा वे उसके पुत्र होंगे (प्रकाशित वाक्य २१:७) । इस प्रकार हम पूरी परिक्रमा करते हैं कि परमेश्वर ने अपने साथ सहभागिता के लिए हमारी रचना करी; मनुष्य ने उस सहभागिता को तोड़ते हुए पाप किया; परमेश्वर उनके साथ अनन्त स्थिति में सहभागिता प्रदान करता है जो उसके द्वारा योग्य ठहराये जाते हैं । अब, परमेश्वर से अनन्तकाल तक अलग होने के लिये केवल मरने के लिये जीवन की यात्रा को कुछ भी तथा सब कुछ पाते हुए पूरा करना निरर्थकता से भी अधिक बुरा है ! परन्तु परमेश्वर ने एक मार्ग बनाया है ना केवल अनन्त आनंद संभव बनाने के लिए (लूका २३:४३), परन्तु इस जीवन को भी संतुष्टिदायक तथा अर्थपूर्ण बनाने के लिये भी । अब, यह अनन्त आनन्द तथा "पृथ्वी पर स्वर्ग" कैसे प्राप्त किया जा सकता है?
यीशु मसीह के द्वारा जीवन का पुनरूद्धार
जैसे कि ऊपर प्रकट किया गया है, वास्तविक अर्थ, वर्तमान तथा अनन्त काल, दोनों में, परमेश्वर के साथ संबंध को प्रदान करने में पाया जाता है जो कि आदम और हव्वा के पाप में पड़ने के समय गँवा दिया गया था, परमेश्वर के साथ वो संबंध केवल उसके पुत्र, यीशु मसीह के द्वारा संभव है (प्रेरितों के काम ४:१२; यूहन्ना १४:६; यूहन्ना १:१२) । अनन्त जीवन तब प्राप्त होता है जब कोई अपने पापों का पश्चाताप करता है (और आगे उनको जारी नहीं रखना चाहता, परन्तु यह चाहता है कि मसीह उसे बदले तथा एक नया व्यक्ति बनाये) तथा यीशु मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में मानकर उसमें विश्वास आरंभ करें देखें प्रश्न "उद्धार प्राप्त करने की क्या योजना है?" इस महत्वपूर्ण विषय पर अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए ।
जीवन का वास्तविक अर्थ केवल यीशु को अपना उद्धारकर्ता मान लेने में ही नहीं है (जितनी की आश्चर्यजनक यह बात है) । बल्कि, जीवन का वास्तविक अर्थ जब पाया जाता है जब व्यक्ति एक अनुयायी के रूप में मसीह का अनुसरण करता है, उसके द्वारा शिक्षा प्राप्त करके, उसके वचन बाइबल में उसके साथ समय व्यतीत करके, प्रार्थना में उसके साथ बातें करके, तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करने में उसके साथ चल कर । अगर आप अविश्वासी हैं (या फिर एक नए विश्वासी हैं) तो हो सकता है आप को यह कहता हुआ पायें, "यह मुझे कुछ भी कौतुहलजनक या संतुष्टिदायक प्रतीत नहीं होता !" परन्तु कुछ देर तक और पढ़ने की कृपा करें । यीशु ने निम्नलिखित कथन किये थे : हे सब परिश्रम करनेवालों और बोझ से दबे हुए लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हे विश्राम दूगा । मेरा जुआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूँ : और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे । क्योंकि मेरा जुआ सहज और मेरा बोझ हल्का है (मत्ती ११:२८-३०) । "मैं इसलिये आया कि वे जीवन पायें और बहुतायत से पायें" (यूहन्ना १०:१०) । "यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे तो अपने आप को इन्कार करे और अपना क्रूस उठाये; और मेरे पीछे हो ले । क्योंकि जो कोई अपना प्र्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोयेगा, वह उसे पायेगा" (मत्ती १६-२४-२५) । "यहोवा को अपने सुख का मूल जान, और वह तेरे मनोरथों को पूरा करेगा" (भजन संहिता ३७:४) ।
जो कुछ भी यह पद कह रहे हैं वो यह है कि हमारे पास विकल्प है । हम स्वयं अपने जीवन को दिशा दिखाना जारी रख सकते हैं (परिणाम स्वरूप एक शून्यता का जीवन जीते हुए) या हम अपने जीवन के लिए पूरे मन से परमेश्वर और उसकी इच्छा का पीछा करना चुन सकते हैं (जिसका परिणाम होगा पूर्णता का जीवन, अपने हृदय की इच्छाओं का पूरा होना तथा संतोष और सन्तुष्टि का प्राप्त होना) । यह इसलिये है क्यूँकि हमारा रचीयता हमसे प्रेम करता है तथा हमारे लिये सर्वोत्तम की इच्छा रखता है (जरूरी नहीं कि आसान जीवन, परन्तु सर्वाधिक परिपूर्ण) ।
अन्त करते हुए, मैं एक तुल्यता बाँटना चाहूँगा जो कि मेरे एक पादरी मित्र से ली गई है । अगर आप खेलों के शौकीन है तथा एक पेशेवर खेल को देखने का निर्णय लेते हैं, तो आप थोड़े पैसे खर्च कर के स्टेडियम में सबसे ऊपर की नकसीर-छुड़ाने वाले स्थान ले सकते हैं, या फिर आप अधिक पैसे खर्च कर खेल के नज़दीक तथा पास वाला स्थान ले सकते हैं । मसीही जीवन में भी ऐसा ही है । परमेश्वर के कार्यों को प्रत्यक्ष रूप से देखना केवल रविवार वाले मसीहियों के लिए नहीं है । परमेश्वर के कार्यों को प्रत्यक्ष रूप से देखना मसीह के एकनिष्ठ अनुयायी के लिए है जिसने की जीवन में अपनी इच्छाओं का पीछा करना वास्तव में छोड़ दिया है जिससे कि वो जीवन में परमेश्वर की इच्छाओं का पीछा कर सके । उन्होंने कीमत चुका दी है (मसीह तथा उसकी इच्छा के प्रतिपूर्ण सर्मपण); वो जीवन में पूर्णता का अनुभव कर रहे हैं; तथा वो स्वयं का अपने साथियों का, तथा अपने रचियता का बिना खेद के सामना कर सकते है ! क्या आपने कीमत चुकाई है? क्या आप ऐसी इच्छा रखते हैं? अगर ऐसा है, तो आप अर्थ तथा उद्देश्य के लिये फिर कभी भूखे नहीं रहेंगे ।
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जीवन का अर्थ क्या है?
पवित्र आत्मा कौन है?
प्रश्न: पवित्र आत्मा कौन है?
उत्तर: पवित्र आत्मा की पहचान के बारे में कई गलत धारणायें हैं । कुछ लोग पवित्र आत्मा को एक रहस्यात्मक शक्ति के रूप में देखते हैं । अन्य पवित्र आत्मा को उस निर्वैयक्तिक शक्ति के रूप में देखते हैं जो परमेश्वर मसीह के अनुयायियों को उपलब्ध कराता है । पवित्र आत्मा की पहचान के बारे में बाइबल क्या कहती है? साधारणतया ऐसे रखें-बाइबल कहती है कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है । बाइबल हमें यह भी बताती है कि पवित्र आत्मा एक व्यक्ति है, एक अस्तित्व जिसमें बुद्धि, भावनाऐं तथा इच्छा है ।
यह वास्तविकता कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है कई आलेखों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसमें कि प्रेरितों के काम ५:३-४ भी सम्मिलित है । इस पद में पतरस हनन्याह का विरोध करता है कि उसने पवित्र आत्मा से झूठ क्यों बोला तथा उसे बताता है कि उसने 'मनुष्यों से नहीं परन्तु परमेश्वर से झूठ बोला ।" यह एक स्पष्ट घोषणा है कि पवित्र आत्मा से झूठ बोलना परमेश्वर से झूठ बोलना है । हम इसलिए भी जान सकते हैं कि पवित्र आत्मा परमेश्वर है क्योंकि उसमें परमेश्वर की विशेषतायें या चरित्रिक गुण है । उदाहरण के लिए यह वास्तविकता है कि पवित्र आत्मा सर्वव्यापी है भजन संहिता १३९:७-८ में देखने को मिलता है, " मैं तेरे आत्मा से भागकर किधर जाऊँ? वा तेरे सामने से किधर भागूँ? यदि मैं आकाश पर चढ़ू, तो तू वहाँ है ! यदि मैं अपना बिछौना आलोक में बिछाऊँ तो वहॉ भी तू है !" फिर १कुरिन्थियों २:१० में हम पवित्र आत्मा की सर्वज्ञता की विशेषता देखते हैं । "परन्तु परमेश्वर ने उनको अपने आत्मा के द्वारा हम पर प्रगट किया; क्योंकि आत्मा सब बातें, वरन परमेश्वर की गूढ़ बातें भी जांचता है । मनुष्य में से कौन किसी मनुष्य की बातें जानता है, केवल मनुष्य की आत्मा जो उस में है? वैसा ही परमेश्वर की बातें भी कोई नहीं जानता, केवल परमेश्वर का आत्मा ।"
हम यह जान सकते हैं कि पवित्र आत्मा निश्चय ही एक व्यक्ति है क्योंकि उसमें बुद्धि, भावनाऐं तथा इच्छा है । पवित्र आत्मा सोचता है तथा जानता है (१कुरिन्थियों २:१०) । पवित्र आत्मा दुखी हो सकता है (इफिसियों ४:३०) । आत्मा हमारे लिए मध्यस्थता करता है (रोमियो ८:२६-२७)। पवित्र आत्मा अपनी इच्छानुसार निणर्य लेता है (१कुरिन्थियों १२:७-११) । पवित्र आत्मा परमेश्वर है, त्रिएकत्व का तीसरा "व्यक्ति" । परमेश्वर के रूप में, पवित्र आत्मा एक सहायक के रूप में सही कार्य कर सकता है जैसा यीशु ने वचन दिया था (यूहन्ना १४:१६,२६;१५:२६)।
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पवित्र आत्मा कौन है?
क्या क्रिश्चियनों को पुराने नियम के कानून मानने चाहिए?
प्रश्न: क्या क्रिश्चियनों को पुराने नियम के कानून मानने चाहिए?
उत्तर: इस विवादित विषय को समझने के लिए महत्वपूर्ण बात यह जानना है कि पुराने नियम के कानून इज़रायल देश को दिये गए थे, क्रिश्चियनों को नहीं । कुछ कानून इसलिये थे कि इज़रायली यह जाने कि कैसे वो परमेश्वर की आज्ञा मानें तथा उसे प्रसन्न करें (उदाहरण के लिए दस नियम) । कुछ उनको यह दिखाने के लिए थे कि परमेश्वर की उपासना कैसे करें (बलिदान की प्रणाली), उनमें से कुछ केवल इजरायलियों को अन्य देशों से भिन्न बनाने के लिये थे (खाने तथा पहनने के नियम) । पुराने नियम का कोई भी कानून हमारे ऊपर अब लागू नहीं होता । जब यीशु सलीब पर मरा, उसने पुराने नियम के कानून पर विराम लगा दिया (रोमियो १०:४; गलतियों ३:२३-२५; इफिसियो २:१५) ।
पुराने नियम के कानून की जगह, हम मसीह के कानून के अधीन है (गलतियों ६:२) जो कि "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख । बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है । और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख । यही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं का आधार है" (मत्ती २२-३७-४०) । अगर हम यह दो बातें मानते हैं, तो हम उस बात को पूरा करेंगे जो मसीह हमसे कराना चाहता है; "और परमेश्वर का प्रेम यह है, कि हम उसकी आज्ञाओं को मानें; और उसकी आज्ञायें कठिन नहीं" (१यूहन्ना ५:३) । तकनीकी रूप से, दस नियम क्रिश्चियनों पर लागू तक नहीं होते हैं । हलांकि दस नियमों में से ९ को नये नियमों में दुहराया गया है (सब सिवाये सबत के दिन को मानने के)। वास्तव में, अगर हम परमेश्वर से प्रेम रखते हैं तो हम किसी भी अन्य देवता की पूजा नहीं करेंगे अथवा मूर्तिपूजा नहीं करेंगे । अगर हम अपने पड़ोसियों से प्रेम रखते हैं तो, हम उनकी हत्या नहीं करेंगे, उनसे झूठ नहीं बोलेंगे, उनके विरुद्ध व्याभिचार नहीं करेंगें, अथवा उनकी किसी वस्तु की लालसा नहीं करेंगे । इसलिए हम पुराने नियम की किसी भी माँग के अधीन नहीं है । हमें परमेश्वर से प्रेम रखना है और अपने पड़ोसियों से प्रेम रखना है । अगर हम इन दो बातों को निष्ठापूर्वक करते हैं, तो हर बात अपनी जगह पर सही आ जाती है ।
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क्या क्रिश्चियनों को पुराने नियम के कानून मानने चाहिए?
क्या क्राइस्ट की प्रभुता बाइबल है?
प्रश्न: क्या क्राइस्ट की प्रभुता बाइबल है?
उत्तर: यीशु के अपने बारे में विशेष दावों के साथ-साथ, उसके चेलों ने भी क्राइस्ट की प्रभुता की पहचान की । उन्होंने दावा किया कि यीशु के पास पापों को क्षमा करने का अधिकार था-वैसा जैसा कि केवल परमेश्वर ही कर सकता है, क्योंकि परमेश्वर ही है जो पाप से क्रोधित होता है (प्रेरितों के काम ५:३१; कुलुस्सियों ३:१३; भजन संहिता १३०:४; यिर्मयाह ३१:३४) । इसके करीबी संबंध में यह अंतिम दावा था, यीशु के लिए यह भी कहा जाता है कि "जो जीवतों और मृतकों के साथ न्याय करेगा" (२तिमुथियुस ४:१) । थोमा ने यीशु से कहा, "हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर !" (यूहन्ना २०:२८) । पौलुस यीशु के विषय में कहता है, "महान परमेश्वर और उद्धारकर्ता" (तीतुस २:१३), तथा दर्शाता है कि देहधारण के पूर्व पहले यीशु "परमेश्वर के रूप में था (फिलिप्पियों २:५-८) । इब्रानियों का लेखक यीशु के संबंध में मत व्यक्त करता है कि, "हे परमेश्वर तेरा सिहांसन युगानुयुग रहेगा" (इब्रानियों १:८) । यूहन्ना अभिव्यक्त करता है, "आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन (यीशु) परमेश्वर था (यूहन्ना १:१) । बाइबल के उदाहरण जो क्राइस्ट की प्रभुता बताता हैं, (देखें प्रकाशित वाक्य १:१७; २:८; २२:१३; १कुरिन्थियों १०:४; १पतरस २:६-८; भजन संहिता १८:२; ९५:१; १पतरस ५:४; इब्रानियों १३:२०), परन्तु इनमें से एक ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि क्राइस्ट अपने शिष्यों के द्वारा प्रभु समझा जाता था ।
यीशु को वो भी नाम दिये गए हैं जो केवल यहोवा (परमेश्वर का औपचारिक नाम) के पुराने नियम में दिये गए हैं । पुराने नियम का नाम "उद्धारकर्ता" (भजन संहिता १३०:७; होशे १३:१४) को नए नियम में यीशु के लिए प्रयोग किया गया है (तीतुस २:१३; प्रकाशित वाक्य ५:९) । यीशु को इम्मानुएल कहा गया है। ("परमेश्वर हमारे साथ" मत्ती 1 में) । जर्कय्याह १२:१० में, यह यहोवा है जो कहता है, "तब वे मुझे ताकेंगे, अर्थात जिसे उन्होंने बेधा है ।" परन्तु नया नियम यह यीशु के सूली पर चढ़ाये जाने पर लागू होता है । (यूहन्ना १९:३७; प्रकाशित वाक्य १:७) । अगर वो यहोवा है, जिसे बेधा गया और ताका गया, तथा यीशु भी था जिसे बेधा गया और खोजा गया, फिर यीशु यहोवा है । पोलुस यशायाह ४५-२२-२३ को यीशु पर लागू करके फिलिप्पियों २:१०-११ में भाषान्तर करता है । इससे आगे, यीशु का नाम यहोवा के साथ प्रार्थना में भी लिया जाता है "परमेश्वर पिता, और हमारे प्रभु यीशु क्राइस्ट की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे" (गलतियों १:३; इफीसियों १:२) । अगर क्राइस्ट में प्रभुता नहीं थी तो यह परमेश्वर की निन्दा करना होगा । यीशु का नाम यहोवा के साथ यीशु के द्वारा नामकरण संस्कार की आज्ञा में प्रकट होता है "पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से" (मत्ती २८:१९; २कुरिन्थियों १३:१४ भी देखें) प्रकाशित वाक्य में यूहन्ना कहता है कि सारी सृष्टि ने क्राइस्ट (मेम्ना) का धन्यवाद दिया-अतः यीशु सृष्टि का हिस्सा नहीं है (५:१३)
जो कार्य केवल परमेश्वर के द्वारा किए जा सकते हैं वो यीशु के के दायित्व में आता है । यीशु ने केवल मुर्दों को ही नहीं जिलाया (यूहन्ना ५:२१; ११:३८-४४), तथा पाप क्षमा किये (प्रेरितों के काम ५:३१, १३:३८), उसने ब्रह्याण्ड की सृष्टि की तथा उसे बनाए रखा (यूहन्ना १:२; कुलुस्सियों १:१६-१७) ! यह तथ्य उस समय और शक्तिशाली बन जाता है जब हम विचार करते हैं कि यहोवा ने कहा था कि सृष्टि को बनाते समय यहोवा अकेला था (यशायाह ४४:२४) इससे आगे, यीशु में वो विशेषताएं हैं जो केवल प्रभु में हो सकती है; अनंतता (यूहन्ना ८:५८), सर्वव्यापकता (मत्ती १८:२०; २८:२०), सर्वज्ञता (मत्ती १६:२१), सर्वकार्यक्षमता (यूहन्ना ११:३८-४४) ।
अब, परमेश्वर होने का दावा करना या किसी को मूर्ख बनाना कि वह विश्वास करे कि वो सच्चाई है, एक अलग बात है तथा ऐसा होने का प्रमाण देना, कुछ और । क्राइस्ट ने अपने प्रभु होने के दावे को प्रमाणित करने के लिए कई चमत्कार प्रस्तुत किये तथा यहाँ तक कि मुर्दों में से भी जी उठा । यीशु के कुछ चमत्कार यह है, पानी को दारवरस बनाना (यूहन्ना २:७), पानी पर चलना (मत्ती १४:२५), भौतिक वस्तुओं को गुणा करना (यूहन्ना ६:११), अन्धों को (यूहन्ना ९:७) लॅगड़ों को (मरकुस २:३), तथा बीमारों को चंगा करना (मत्ती ९:३५; मरकुस १:४०-४२), यहाँ तक कि मुर्दों को जिन्दा करना (यूहन्ना ११:४३-४४; लूका ७:११-१५; मरकुस ५:३५) । इनके अतिरिक्त, यीशु स्वयं मुर्दों में से जी उठा । विधर्मियों के पुराणों के कहे जाने वाले देवताओं के मरने और उठने से बिल्कुल अलग, पुनरुत्थान जैसी बात किसी भी अन्य धर्म ने गंभीरता से दावा नहीं किया-तथा किसी भी अन्य दावे के पास इतनी अधिक शास्त्रों से अलग की जानकारी नहीं है । डा० गैरी हैबरमास के अनुसार, कम से कम बारह ऐतिहासिक सत्य ऐसे हैं जो कि गैर-मसीही आलोचनात्मक विद्वान भी मानेंगेः
1. यीशु की मृत्यु सलीब पर चढ़ाये जाने द्वारा हुई ।
2. उसे गाड़ा गया ।
3. उसकी मृत्यु उसके शिष्यों के निराश होने तथा उम्मीद छोड़ने का कारण बनी ।
4. उसकी कब्र को कुछ दिनों बाद खाली पाया गया (या पाने का दावा किया गया) ।
5. शिष्यों ने यह विश्वास किया कि उन्हें जी उठे यीशु के प्रकट होने का अनुभव हुआ ।
6. उसके बाद उनके शिष्य शंका से निवृत होकर निडर विश्वासियों में परिवर्तित हुए ।
7. यह संदेश आरंभिक कलीसिया में प्रचार का केंद्रबिंदु बना ।
8. इस संदेश का येरूशलम में प्रचार किया गया ।
9. इस प्रचार के परिणामस्वरूप (चर्च) कलीसिया का जन्म हुआ तथा उसका विकास हुआ ।
10. पुनरुत्थान के दिन (रविवार) को सबत (शनिवार) के दिन से उपासना के लिए बदला गया ।
11. याकूब, जो कि एक संशयवादी था, परिवर्तित हुआ जब उसने भी विश्वास किया कि उसने पुर्नजीवित यीशु को देखा ।
12. पौलुस, मसीही धर्म का शत्रु, एक अनुभव के द्वारा परिवर्तित हुआ जिसपर उसने जी उठे परमेश्वर के होने का विश्वास किया ।
अगर कोई इस विशेष सूची के ऊपर आपत्ति भी करे, तो भी, पुनरुत्थान को प्रमाणित करने तथा सुसमाचार को स्थापित करने के लिये केवल थोड़ों की ही आवश्यकता है : यीशु की मृत्यों, गाड़े जाने, पुनरुत्थान तथा प्रकट होने (१कुरिन्थियों १५:१-५) । हाँलाकि ऊपर लिखी वास्तविकताओं के व्याख्या के लिए कुछ सिद्धान्त हो सकते हैं परन्तु केवल पुनरुत्थान उन सब की व्याख्या करता है तथा जबावदेह है । आलोचक यह मानते हैं कि चेलों ने यह दावा किया कि उन्होंने जी उठे यीशु को देखा । ना तो झूठ, ना ही भ्रांति इस तरह से लोगों को परिवर्तित कर सकते हैं जैसा कि पुनरुत्थान ने किया । प्रथम, कि उनको क्या लाभ होता? मसीही धर्म इतना लोकप्रिय नहीं था तथा निश्चित रूप से वो पैसा नहीं बना सकते थे । दूसरा, झूठे लोग अच्छे बलिदानी नहीं बन सकते । अपने विश्वास के लिये शिष्यों की स्वेच्छा से भयावह मृत्यों को स्वीकार करना, नरुत्थान से अधिक अच्छी व्याख्या नहीं हो सकती । हाँ, कई लोग उन असत्यों के लिये मरते हैं जिन्हें वे सत्य समझते हैं, परन्तु कोई भी उस वस्तु के लिए नहीं मरता जिसे वो जानता हो कि वो असत्य है ।
सारांश यह है कि यीशु ने दावा किया कि वो यहोवा है, वो प्रभु है । केवल "परमेश्वर" नहीं, परन्तु "सच्चा परमेश्वर", उसके चेले (यहूदी लोग जो कि मूर्तिपूजा से डरे हुए हो सकते थे) उस पर विश्वास करते थे तथा उसे ऐसे बुलाते थे । यीशु ने अपने प्रभु होने के दावे को चमत्कारों के द्वारा प्रमाणित किया जिसमें कि संसार को हिला देने वाला पुनरुत्थान भी शामिल था । कोई भी अन्य प्राकल्पना के इन तथ्यों को नहीं समझा सकता ।
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क्या क्राइस्ट की प्रभुता बाइबल है?
क्या उद्धार केवल विश्वास के द्वारा है, या विश्वास के साथ कर्मों के द्वारा?
प्रश्न: क्या उद्धार केवल विश्वास के द्वारा है, या विश्वास के साथ कर्मों के द्वारा?
उत्तर: यह शायद सारे क्रिश्चियनों धर्मतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है । यह प्रश्न उस सुधार का कारण है-प्रोटेस्टैंट कलीसिया तथा कैथोल्कि कलीसिया के मध्य विभाजन का । यह प्रश्न बाइबिली क्रिश्चियनों धर्म तथा सर्वाधिक "क्रिश्चियनों" संप्रदायों के मध्य एक महत्वपूर्ण भिन्नता है । क्या उद्धार केवल विश्वास के द्वारा है या विश्वास और कर्मों के द्वारा? क्या केवल यीशु पर विश्वास करके मुझे उद्धार प्राप्त हो जायेगा, या मुझे यीशु में विश्वास के साथ निश्चित कर्म भी करने होंगे?
केवल विश्वास या विश्वास के साथ कर्मों का प्रश्न बाइबल के कुछ ऐसे अनुच्छेदों के द्वारा कठिन बना दिया गया है जिनके साथ समझौता करना कठिन है । रोमियो ३:२८; ५:१ तथा गलतियों ३:२४ की याकूब २:२४ के साथ तुलना करें । कुछ लोग पौलुस (केवल विश्वास के द्वारा उद्धार है) तथा याकूब (उद्वार विश्वास तथा कर्मों के द्वारा है) के मध्य भिन्नता पाते हैं । वास्तव में पौलुस तथा याकूब में असहमति बिल्कुल नहीं थी । असहमति का केवल एक बिंदु विश्वास तथा कर्मों के मध्य संबंध है जिसका कुछ लोग दावा करते हैं । पौलुस दृढ़ता के साथ कहता है न्याय केवल विश्वास है (इफिसियों २:८-९) जबकि यह कहते हुए पाया जाता है कि न्याय विश्वास तथा कर्मों के द्वारा है । इस प्रत्यक्ष समस्या का समाधान इस बात पर निरीक्षण करने से होता है कि वास्तव में याकूब किस बारे में बात कर रहा है । याकूब उस धारणा का खंडन करता है कि कोई बिना अच्छे कार्य किए हुए विश्वास को प्राप्त कर सकता है (याकूब २:१७-१८) । याकूब उस तथ्य पर ज़ोर डाल रहा है कि क्राइस्ट में खरा विश्वास एक बदला हुआ जीवन तथा अच्छे कार्य उत्पन्न करेगा (याकूब २:२०-२६) । याकूब यह नहीं कह रहा है कि न्याय विश्वास तथा कर्मों के द्वारा है, परन्तु यह जब एक व्यक्ति विश्वास के द्वारा वास्तविक न्याय पा लेगा तो उसके जीवन में अच्छे कर्म होंगे । अगर एक व्यक्ति विश्वासी होने का दावा करता है, परन्तु अपने जीवन में अच्छे कर्म नहीं करता-फिर उसके पास क्राइस्ट मे खरा विश्वास नहीं होता (याकूब २:१४,१७,२०,२६) ।
पौलुस भी अपने लेखों में यही बातें कहता है । विश्वासियों के जीवन में जो अच्छा फल होना चाहिये वो गलतियों ५:२२-२३ में सूचीबद्ध है । यह बताने के तुरन्त बाद कि हम विश्वास द्वारा उद्धार पाते हैं, न कि कर्मों के द्वारा (इफिसियों २:८-९) । पौलुस हमें सचेत करता है कि हमारी रचना अच्छे कर्म को संपादित करने के लिए की गई है (इफिसियों २:१०) । एक परिवर्तित जीवन में पौलुस की अपेक्षा भी उतनी ही थी जितनी की याकूब की; "सो यदि कोई क्राइस्ट में है तो वह नई सृष्टि है : पुरानी बातें बीत गई, देखो वे सब नई हो गई। "(२ कुरिन्थियों ५:१७) ! याकूब तथा पौलुस मुक्ति पर अपनी शिक्षा पर असहमत नहीं थे । वे भिन्न दृष्टिकोणों से एक ही लक्षय की ओर पहुँचते हैं । पौलुस ने सरलता से इस बात पर ज़ोर दिया कि न्याय केवल विश्वास द्वारा ही है जबकि याकूब ने इस सत्य पर विशेष रूप से महत्व दिया कि क्राइस्ट में विश्वास अच्छे कर्म उत्पन्न करता है ।
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क्या उद्धार केवल विश्वास के द्वारा है, या विश्वास के साथ कर्मों के द्वारा?
मैं अपने जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा कैसे जान सकता हूँ?
प्रश्न: मैं अपने जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा कैसे जान सकता हूँ? परमेश्वर की इच्छा जानने के विषय में बाइबल क्या कहती है?
उत्तर: एक स्थिति के लिए परमेश्वर की इच्छा को जानने के लिये दो महत्वपूर्ण बातें हैं (1) निश्चित करें कि जो आप माँग रहे हैं या करने का विचार कर रहें हैं वो कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे बाइबल वर्जित करती हो । (2) निश्चित करें कि जो आप माँग रहें हैं या करने का विचार कर रहें हैं वो परमेश्वर की महिमा बढ़ायेगा तथा आपका आत्मिक रूप से विकास करने में सहायता करेगा । अगर यह दो बातें सत्य है तथा फिर भी परमेश्वर आपको वो नहीं दे रहा है जो आप माँग रहें हैं-फिर संभवतया परमेश्वर की इच्छा नहीं है कि वो वस्तु आपको मिले जो आप माँग रहें हैं । या, शायद आपको थोड़ी और अधिक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है । परमेश्वर की इच्छा को जानना कई बार कठिन है जाता है । लोग परमेश्वर से चाहते हैं कि वो उन्हें आधार रूप में बताए कि क्या करना है-कहाँ कार्य करना है, कहाँ रहना है, किससे विवाह करना है, वगैरह । (रोमियो १२:२) हमें बताता है, "और इस संसार के सदृश ना बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए जिससे कि तुम परमेश्वर को सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो ।"
परमेश्वर कदाचित ही लोगों को वैसी प्रत्यक्ष तथा निश्चित सूचना देता है । परमेश्वर हमें उन वस्तुओं के संबंध में विकल्प चुनने की अनुमति देता है । जो एक निर्णय परमेश्वर नहीं चाहता कि हम करें वो पाप करने तथा उसकी इच्छा का विरोध करने का निर्णय है । फिर, आप कैसे जानेंगें कि परमेश्वर की इच्छा आपके लिए क्या है? अगर आप प्रभु के साथ-साथ चल रहे हैं तथा सच्चे मन से अपने जीवन के लिए उसकी इच्छा जानना चाहते हैं -परमेश्वर अपनी इच्छाओं को आपके हृदय में रखेगा । महत्वपूर्ण बात परमेश्वर की इच्छा चाहना है, अपनी स्वयं की नहीं । "यहोवा को अपने सुख का मूल जान, और वह तेरे मनोरथों को पूरा करेगा" (भजन संहिता ३७:४) । अगर बाइबल उसके विरोध में नहीं बोलती है, तथा आप को आत्मिक रूप से सच्चा लाभ पहुँचाती है-फिर बाइबल आप को निर्णय लेने तथा अपने हृदय का अनुसरण करने की "अनुमति" देती है।
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मैं अपने जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा कैसे जान सकता हूँ?
मैं अपने मसीही जीवन में पाप पर विजय कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?
प्रश्न: मैं अपने मसीही जीवन में पाप पर विजय कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?
उत्तर: अपनी पाप पर विजय के लिये बाइबल निम्नलिखित स्त्रोतों के विषय में बात करती है जो हमारे पास हैं : (1) पवित्र आत्मा - एक वरदान जो परमेश्वर ने हमको (अपनी कलीसियाओं)। मसीही जीवन में विजयी होने के लिए दिया है वो पवित्र आत्मा है । गलतियों ५:१६-२५ में परमेश्वर शरीर के कार्यो तथा आत्मा के फल में विपरीतता बताता है । उस अनुच्छेद में हमसे कहा गया है कि आत्मा के अनुसार चलें । "सारे विश्वासियों के पास पहले से ही पवित्र आत्मा है, परन्तु यह अनुच्छेद हमें यह बताता है कि हमें आत्मा के अनुसार चलने की आवश्यकता है, उसके नियंत्रण के अनुकूल रहकर । इसका अर्थ है पवित्र आत्मा की जागरूकता को चुनकर कार्य करना ना कि शरीर की इच्छा के अनुसार ।
एक विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा जो अन्तर ला सकती है वो पतरस के जीवन में प्रदर्शित है, जिसने कि पवित्र आत्मा के ग्रहण किये जाने से पहले यीशु का तीन बार इन्कार किया, जबकि उसने कहा था कि वो यीशु का मरते दम तक अनुसरण करेगा । ग्रहण करने के पश्चात उसने यहूदियों से उद्धार के पेन्तीकुस्त पर स्पष्टता तथा साहस के साथ बातें करीं ।
एक व्यक्ति आत्मा के अनुसार चलता है जब वो आत्मा के सुझावों पर "ढक्कन लगाने" का प्रयास नहीं करता (जैसा कि १थिस्सलुनीकियों ५:१९ में कहा है "आत्मा का बुझना) तथा इसके बजाय आत्मा से भर जाने की खोज करता है (इफिसियों ५:१८-२१) । कोई पवित्र आत्मा से कैसे भर जाता है? सबसे पहले, यह परमेश्वर की इच्छा से है जैसा कि पुराने नियम में भी था । उसने पुराने नियम में व्यक्तियों तथा खास घटनाओं को चुना कि वो उसके चुने हुए लोगों को भरे जिससे कि वो उसकी इच्छा का कार्य पूरा करें (उत्पत्ति ४१:३८; निर्गमन ३१:३; गिनती २४:२; १शमूएल १०:१०; वगैरह) । मैं यह मानता हूँ कि इफिसियों ५:१८-२१ तथा कुलुस्सियों ३:१६ में गवाही है कि परमेश्वर उनको मरने के लिए चुनता है जो अपने आप को परमेश्वर के वचन से भर रहे हैं जैसा कि उस सत्य से प्रमाणित होता है कि उन पदों में हर एक के भरे जाने का परिणाम समान है । अतः यह हमें हमारे अगले स्त्रोत पर ले आता है ।
(२) परमेश्वर का वचन, बाइबल - २ तिमुथियुस ३:१६-१७ कहता है कि परमेश्वर ने हमें अपना वचन दिया है कि हम हर भले काम के लिए तत्पर हो जाये । यह हमें शिक्षा देता है कि कैसे जीवन बितायें तथा किसपर विश्वास करें, जब हम गलत मार्ग अपनाते हैं तो यह हमपर प्रकट करता है, हमें वापस सही मार्गों पर आने के लिये यह हमारी सहायता करता है, तथा उसपर बने रहने के लिए हमारी सहायता करता है । जैसा कि इब्रानियों ४:१२ बांटता है कि वो जीवित और प्रबल है, तथा हमारे मन की गहरी से गहरी समस्याओं का जड़ से उखाड़ फेंकने की क्षमता रखता है, जिनपर कि मनुष्य के तौर पर विजयी नहीं हो सकता । भजनकर्ता उसका जीवन बदलने की शक्ति के विषय में भजनों ११९:९; ११, १०५ तथा अन्य पदों में बात करता है । यहोशु को बताया गया था कि उसके शत्रुओं पर उसकी विजय की कूँजी (हमारे आत्मिक युद्ध की समानता) उसको भुलाये ना जाना है बल्कि उसपर रात और दिन ध्यान लगाना है जिससे कि वो उस पर गौर कर सके । यह उसने किया, जबकि जो उसे परमेश्वर ने आदेश दिया था कोई सैन्य भावना नहीं बताती थी, तथा यह उस वचन में में दी गई भूमि के लिए उसके युद्ध में उसकी विजय की कुँजी बनी ।
यह स्त्रोत आमतौर रूप से वो है जिसके साथ हम नगण्य सा व्यवहार करते हैं । हम उसकी सांकेतिक सेवा करते हैं बाइबल को चर्च तक ले जाकर या प्रतिदिन की एक धार्मिकता पढ़कर या एक दिन में एक अध्याय पढ़कर, परन्तु हम उसे स्मरण रखने में, उसपर ध्यान लगाने में, अपने जीवन में उसको लागू करने में, उसके द्वारा प्रकट किए गए पापों को स्वीकारने में, उन वरदानों के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करने में जो उसने प्रकट किये, असफल रहते हैं । जब बाइबल की बात आती है तो हम या तो क्षुधानाश होते हैं या उसके विपरीत । या तो हम केवल इतना ग्रहण करते हैं जो हमें आत्मिक रूप से जीवित रखें उस वचन में से खाकर बस जब हम चर्च जाते हैं (परन्तु कभी इतना नहीं निगलने कि स्वस्थ, उन्नतिशील मसीही बनें) या हम अकसर उसे खाते हैं परन्तु कभी भी उसपर इतना ध्यान नहीं लगाते कि हमें उसके द्वारा आत्मिक पोषण मिल सके ।
यह महत्वपूर्ण है कि अगर आपने प्रतिदिन के आधार पर अर्थपूर्ण तरीके से परमेश्वर के वचन को पढ़ने की आदत नहीं डाली है, तथा उसे स्मरण करने की जैसे कि आप अनुच्छेदों पर आते हैं, तो पवित्र आत्मा आपके हृदय पर असर डालता है, कि आप उसकी आदत बनाना शुरू कर देते हैं । मैं आपको यह भी सुझाव दूगा कि आप एक पत्रिका शुरू करें (या फिर कमप्यूटर पर अगर आप लिखने से ज्य़ादा तेज़ टाइपिंग कर सकते हैं तो) या फिर एक नोटबुक, वगैरह । अपनी आदत बनायें कि वचन को नहीं छोडेंगे जब तक आप ने उससे प्राप्त किया हुआ कुछ लिख ना लिया हो । मैं अकसर परमेश्वर से की गई प्रार्थनाओं को रिकार्ड करता हूँ उससे यह कहते हुए कि मुझे उन क्षेत्रों में बदलाव लाने में सहायता करें जिसके बारे में उसने मुझसे बात करी हुई हैं । बाइबल वो हथियार है जो हमारी तथा अन्यों की जिंदगी में आत्मा द्वारा इस्तेमाल की जाती है (इफिसियों ६:१७), उस कवच का एक अनिवार्य हिस्सा जो परमेश्वर ने हमें हमारे आत्मिक युद्धों को लड़ने के लिये दिया है (इफिसियों ६:१२-१८)!
3. प्रार्थना -यह एक अन्य अनिवार्य स्त्रोत है जो परमेश्वर ने दिया है । फिर से, यह एक ऐसा स्त्रोत है जिसको कि मसीही झूठा आदर देते हैं परन्तु उसका खराब उपयोग करते हैं । हमारे यहॉ प्रार्थना सभायें, प्रार्थना का समय, वगैरह होते हैं, परन्तु हम उसका उपयोग नहीं खोज पाते जिसका कि आरंभिक कलीसिया उदाहरण देती है (प्रेरितों के काम ३:१; ४:३१; ६:४; १३:१-३, वगैरह) । पौलुस ने बार-बार यह कहा है कैसे वो प्रार्थना करता था उनके लिए जिनकी वो देख-भाल करता था । ना ही हम ही, जब हम अपने आप में होते हैं , इस महान स्त्रोत का उपयोग करते हैं जो हमें उपलब्ध है । परन्तु परमेश्वर ने प्रार्थना के संबंध में हमसे आश्चर्यजनक वायदे किये हैं (मत्ती ७:७-११; लूका १८:१-८; यूहन्ना ६:२३-२७; १यूहन्ना ५:१४:१५, वगैरह) । तथा फिर से, पौलुस ने अपने आत्मिक युद्ध की तैयारी के लिए शामिल कर लिया (इफिसियों ६:१८)
कितनी महत्वपूर्ण है यह? जब आप पतरस की ओर दुबारा देखेंगे, आपके पास गतसमनिया के बाग में मसीह के द्वारा बोले गए शब्द होगें, पतरस के इन्कार से पहले के । वहाँ पर, जब यीशु प्रार्थना कर रहा था, पतरस सो रहा था । यीशु ने उसको जगाया और कहा, "जागते रहो, और प्रार्थना करते रहो, कि तुम परीक्षा में ना पड़ो : आत्मा तो तैयार है, परन्तु शरीर दुर्बल है" (मत्ती २६:४१) । आप भी, पतरस की तरह, वो करना चाहते हैं जो सही है परन्तु शक्ति नहीं खोज पा रहें हैं । हमें परमेश्वर की डॉट-फटकार की आवश्यकता है जिससे कि हम खोजते रहें, खटखटाते रहें, मांगते रहें ... तथा वो हमें शक्ति देगा जिसकी हमें आवश्यकता है (मत्ती ७:७f) । परन्तु हमें इस स्त्रोत को झूठे आदर से बहुत अधिक देने की आवश्यकता है ।
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि प्रार्थना चमत्कारी है । यह परमेश्वर नहीं है । परमेश्वर विस्मयकारी है । प्रार्थना तो केवल अपने स्वयं की सीमाओं को तथा परमेश्वर की कभी ना थकने वाली शक्ति को पहचानना है तथा जो वो हमसे कराना चाहता है उसकी शक्ति को पाने के लिए उसकी ओर मुड़ना है (जो हम करना चाहते हैं वो नहीं) (१यूहन्ना ५:१४-१५) ।
4. कलीसया - अंतिम स्त्रोत फिर से वैसा ही है जिसे अनदेखा करने की प्रवृत्ति है । जी यीशु ने अपने चेलों को प्रचार करने बाहर भेजा, उसने दो-दो के जोड़ों में भेजा (मत्ती १०:१) । जब हम प्रेरितों के कामों में मिशनरी यात्राओं को देखते हैं, तो वो प्रचार करने अकेले नहीं जाते थे; परन्तु दो या अधिक लोगों के समूह में । यीशु ने कहा जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं, वहॉ मैं उनके बीच में रहता हूँ (मत्ती १८:२०) । वो हमें यह आज्ञा देता है कि हम एक साथ इक्कटठे होने का परित्याग ना करें जैसा कि कुछ लोगों का व्यवहार था, परन्तु उस समय को एक दूसरे के प्रति प्रेम तथा भले कार्यों के प्रोत्साहन में उपयोग करें (इब्रानियों १०:२४-२५) । वो हमसे कहता है कि हम एक दूसरे के सामने अपने पापों को मानें (याकूब ५:१६) । पुराने नियम के ज्ञान के साहित्य में, हमें बताया गया है कि जैसे लोहा लोहे को चमका देता है वैसे ही मनुष्य का मुख अपने मित्र की संगति से चमकदार हो जाता है (नीतिवचन २७:१७) "जो डोरी तीन भागों से बंटी हो वो जल्दी नहीं टूटती" । एक से दो अच्छे हैं (सभोपदेशक ४:११-१२) कुछ लोगों ने जिन्हें मैं जानता हूँ यीशु में भाई या बहनें पायी हैं जो कि फोन पर या व्यक्तिगत रूप में एकत्रित होते हैं तथा यह आपस में बॉटते है कि वो अपने मसीही जीवन में कैसा कर रहें हैं, उन्होंने कितना संघर्ष किया, वगैरह तथा एक दूसरे के लिये प्रार्थना करने का वादा करते हैं तथा अपने संबंधों में परमेश्वर के वचन को लागू करने के लिये एक दूसरे को जवाबदेह मानते हैं।
कभी परिवर्तन जल्दी आ जाता है । कभी, अन्य क्षेत्रा में, धीरे आता है । परन्तु परमेश्वर ने हमसे यह वादा किया है कि जब भी हम उसके स्त्रोतों का उपयोग करेंगे, वो हमारे जीवन में परिवर्तन लायेगा । इसलिये यह जानते हुए प्रयासरत रहें कि वो अपने वादों के प्रति ईमानदार हैं!
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मैं अपने मसीही जीवन में पाप पर विजय कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?
मुझे आत्महत्या क्यों नहीं करनी चाहिये?
प्रश्न: मुझे आत्महत्या क्यों नहीं करनी चाहिये?
उत्तर: मेरा हृदय उनके प्रति बुझ जाता है जो आत्महत्या के द्वारा अपने जीवन को समाप्त करने की सोचते हैं । अगर अभी आप भी वैसे ही हैं, तो वो कई भावनायें प्रदर्शित कर सकता है, जैसे कि निराशा तथा हताशा का अहसास । आपको यह महसूस हो सकता है कि आप सबसे गहरे गड्ढे में हैं, तथा आप को संदेह है कि कोई आशा कि किरण कि वस्तुऐं बेहतर हो सके । कोई भी यह परवाह करता या समझता प्रतीत नहीं होता कि आप कहाँ से आ रहें हैं । जीवन जीने लायक नहीं है ... या है?
किसी न किसी समय कई लोगों को निर्बल करने वाली भावनाओं का अनुभव होता है । जब मैं एक भावनात्मक गड्ढे में था तो मेरे मस्तिष्क में यह सवाल उपजे, "क्या यह कभी भी परमेश्वर की इच्छा हो सकती है, जिसने मुझे बनाया?" "क्या परमेश्वर मेरी सहायता करने के लिए बहुत छोटा है?" "क्या मेरी समस्यायें उसके लिए बहुत बड़ी हैं?"
मुझे आपको यह बताकर प्रसन्नता हो रही है कि अगर आप कुछ क्षण यह सोचकर निकालें कि बिल्कुल अभी आप अपने जीवन में परमेश्वर को वास्तविकता में परमेश्वर बने रहने दे रहे हैं, तो वो यह प्रमाणित कर देता है कि वो वास्तव में कितना बड़ा है ! "क्योंकि जो वचन परमेश्वर की ओर से होता है वो प्रभावरहित नहीं होता "(लूका १:३७) । शायद गहरे प्रभावों ने यह अस्वीकारिता या परित्याग की हावी हो जाने वाली भावना को परिणाम दिया है । यह आत्मदया, क्रोध, कटुता, प्रतिशोधी भावनायें या तरीकों की अस्वस्थ आशंकाओं की ओर ले जाती है, जिन्होंने आपके कुछ अति महत्वपूर्ण संबंधों में समस्य पैदा कर देती होंगी । किसी भी तरह से, आत्महत्या आपके उन स्वजनों के लिये विनाश लाने का कार्य करेगी जिनको आपने दुख पहुँचाने की मंशा भी कभी नहीं की होगी, भावनात्मक गहरे प्रभाव जिनका की उनकी बाकी की जिंदगी के साथ व्यवहार किया जायेगा ।
आपको आत्महत्या क्यों नहीं करनी चाहिये? मित्र, चाहे कितनी बुरी वस्तुऐं आपके जीवन में क्यों ना हो, वहाँ पर प्रेम का परमेश्वर है जो आपकी प्रतीक्षा कर रहा है कि आप उसे अपना मागदर्शन करने दें जिससे वो आपको अपनी निराशा की सुरंग से निकाले, बाहर, अपने चमत्कारिक प्रकाश में । वह आपकी निश्चित आशा है । उसका नाम यीशु है ।
यह यीशु, परमेश्वर का पाप रहित पुत्र, आपकी अस्वीकारिता तथा अवमान के समय अपनी पहचान बनाता है । भविष्यवक्ता यशायाह ने उसके विषय में लिखा, "उसकी ना तो कोई सुन्दरता थी कि हम उसको देखते, और न उसका रूप ही हमें ऐसा दिखाई पड़ा कि हम उसको चाहते । वह तुच्छ जाना जाता और मनुष्यों का त्यागा हुआ था; वह दुखी पुरुष था, रोग से उसकी जान पहचान थी; और लोग उससे मुख फेर लेते थे । वह तुच्छ जाना गया, और, हम ने उसका मूल्य ना जाना । निश्चय उसने हमारे रोगों को सह लिया और हमारे ही दुखों को उठा लिया; तो भी हम ने उसे परमेश्वर के दुर्दशा में पड़ा हुआ अवस्था समझा । परन्तु वह हमारे ही अपराधों के कारण घायल किया गया, वह हमारे अधर्म के कामों के हेतु कुचला गया; हमारी ही शान्ति के लिये उसपर ताड़ना पड़ी, कि उसके कोड़े खाने से हम लोग चंगे हो जायें। हम तो सब के सब भेड़ों की नाईं भटक गए थे;हम में से हर एक ने अपना-अपना मार्ग लिया; और यहोवा ने हम सभी के अधर्म का बोझ उसी पर लाद दिया" (यशायाह ५३:२-६)
मित्र, यह सब यीशु मसीह ने सहा कि हमारे सारे पाप क्षमा किये जा सकें! जो कुछ भी दोषभावना का भार आप अपने पर लिये हुए हैं, यह जान लें कि वो आपको क्षमा कर देगा अगर आप विनम्रता पूर्वक पश्चाताप करेंगे । अपने पापों से मुड़कर, परमेश्वर की ओर आयें । "और संकट के दिन मुझे पुकार, मैं तुझे छुड़ाऊँगा, और तू मेरी महिमा करने पायेगा" (भजन संहिता ५०:१५) । अब तक जो कुछ भी आपने किया वो यीशु के क्षमा करने के लिए बहुत बुरा नहीं है ।
बाइबल में उसके चहेते सेवकों में से कुछ ने बड़े पाप करे थे, जैसे हत्या (मूसा), व्यभिचार (दाऊद), तथा शारीरिक तथा भावनात्मक दुरूपयोग (पे्ररित पौलुस) । फिर भी, उन्होंने क्षमा तथा प्रभु में एक नया प्रचुर जीवन पाया । "मुझे भली-भांति धोकर मेरा अधर्म दूर कर, और मेरा पाप छुड़ाकर मुझे शुद्ध कर" (भजन संहिता ५१:२) । "सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है : पुरानी बातें बीत गईं हैं; देखो, वे सब नई हो गई" (२कुरिन्थियों ५:१७) ।
आपको आत्महत्या क्यों नहीं करनी चाहिये? मित्र, परमेश्वर उस वस्तु को ठीक करने के लिए तैयार खड़ा रहता है जो "टूटी" हो ... अर्थात, वो जीवन जो अभी आपके पास है, जिसको आप आत्महत्या करके समाप्त करना चाहते हैं । भविष्यवक्ता यशायाह ने लिखा, "प्रभु यहोवा का आत्मा मुझ पर है; क्योंकि यहोवा ने सुसमाचार सुनाने के लिये मेरा अभिषेक किया है और मुझे इसलिए भेजा है कि मैं खेदित मन के लोगों को शान्ति दूँ; कि बंधुओं के लिये स्वतंत्रता का और कैदियों के लिए छुटकारे का प्रचार करूँ; कि यहोवा के प्रसन्न रहने के वर्ष का और हमारे परमेश्वर के लिए पलटा लेने के दिन का प्रचार करूँ, कि सब विलाप करने वालों को शांति दूँ । ओर विलाप करने वालों के सिर पर की राख दूर करके सुन्दर पगड़ी बांध दूँ; कि उनका विलाप दूर करके हर्ष का तेल लगाऊँ; और उनकी उदासी हटाकर यश का ओढ़ाना ओढ़ाऊँ, जिस से वे धर्म के बांजवृक्ष और यहोवा के लगाए हुए कहलायें और जिस से उसकी महिमा प्रकट हो" (यशायाह ६१:१-३)
यीशु के पास आयें तथा उसको अपना आनन्द तथा उपयोगिता बहाल करने दें जैसे कि आप अपने जीवन में एक नया कार्य शुरू करने के लिए उसपर भरोसा करते हैं । "अपने किये हुए उद्धार का हर्ष मुझे फिर से दे, और उदार आत्मा देकर मुझे संभाल।" "हे प्रभु मेरा मुँह खोल दे तब मैं तेरा गुणानुवाद कर सकूँगा । क्योंकि तू मेलबलि में प्रसन्न नहीं होता, नहीं तो मैं देता; होमबलि से भी तू प्रसन्न नहीं होता । टूटा मन परमेश्वर के योग्य बलिदान है; हे परमेश्वर, तू टूटे और पिसे हुए मन को तुच्छ नहीं जानता" (भजन संहिता ५१:१२,१५-१७) ।
क्या आप प्रभु को अपने उद्धारकर्ता तथा चरवाहे के रूप में स्वीकार करेंगे? वो आपके विचारों तथा कदमों का मार्गदर्शन करेगा, एक समय में एक दिन, अपने वचन के द्वारा, बाइबल के द्वारा । "मैं तुझे बुद्धि दूँगा और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूँगा; मैं तुझ पर कृपादृष्टि रखूँगा और सम्मति दिया करूँगा" (भजन संहिता ३२:८) । "और उद्धार, बुद्धि और ज्ञान की बहुतायत तेरे दिनों का आधार होगी; यहोवा का भय उसका धन होगा" (यशायाह ३३:६) । मसीह में भी, आपको संद्घर्ष करना पड़ेगा, परन्तु अब आपके पास आशा होगी । वो "ऐसा मित्र है, जो भाई से भी अधिक मिला रहता है" (नीतिवचन १८:२४) । आपके निर्णय लेने की घड़ी में प्रभु यीशु का अनुग्रह आपके साथ रहे ।
अगर आप अपने उद्धारकर्ता के रूप में यीशु मसीह पर भरोसा करते हैं, यह शब्द अपने मन में परमेश्वर से कहें । "परमेश्वर, मुझे अपने जीवन में आप की आवश्यकता है । जो कुछ मैंने किया उसके लिए कृपा मुझे क्षमा करें । मैं अपना विश्वास यीशु मसीह में रखता हूँ कि वो मेरा उद्धारकर्ता है । कृपा मुझे धोयें, चंगा करें, तथा जीवन में मेरा आनन्द पुनःआरम्भ करें । मेरे प्रति आपके प्रेम के लिए तथा मेरे हित में यीशु की मृत्यु के लिए धन्यवाद ।"
क्या आपने, जो यहाँ पर पढ़ा है, उसके कारण यीशु के लिए निर्णय लिया है? अगर ऐसा है तो कृपा नीचे स्थित "मैंने आज यीशु को स्वीकार कर लिया है" वाला बटन दबाएँ ।
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मुझे आत्महत्या क्यों नहीं करनी चाहिये?